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________________ ३९८ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश (6) मष-शहद तीन किस्म का होता है । एक मधुमक्खी से, दूसरा कुन्ता नामक उड़ने वाले जीवों से और तीसरा भ्रमरी के द्वारा तैयार किया हुआ होता है। (ये तीनों प्रकार के शहद उत्सर्गरूप से वजित हैं) (8) मांस भी तीन प्रकार का होता है,-जलचर का, स्थलचर का और खेचर जीवों का । जीवों की चमडी, चर्बी, रक्त, मज्जा, हड्डी आदि भी मांस के अन्तर्गत हैं । (१०) तली हुई बीजे-धी या तेल में तले हुए पूए जलेबी आदि मिठाइयां, चटपटे मिर्चमसालेदार बड़े, पकौड़े आदि सब भोज्यपदार्थों की गणना अवगाहिम (तली हुई) में होती है ; ये सब बस्तुएं विग्गइ हैं । अवगाह शब्द के भाव-अर्थ में 'इम' प्रत्यय लगने से अवगाहिम शब्द बना है। इसका अर्थ होता है - तेल, घी आदि से भरी कड़ाही में अवगाहन करके-डबो कर जो खाचवस्तु, जब वह उबल जाय तब बाहर निकाली जाय । यानी तेल घी आदि में नलने के लिए खाद्यपदार्थ डाला जाय और तीन बार उबल जाने के बाद उसे निकाला जाय ; ऐमी वस्तु मिठाई, बड़े, पकौड़े, या अन्य तली हुई चीजें भी हो सकती हैं और वे शास्त्रीय परिभाषा में विग्गई कहलाती हैं । वृद्ध आचार्यों की धारणा है कि अगर चौथी बार की तली हुई कोई वस्तु हो तो वह नीवी (निविग्गई) के योग्य मानी जाती है । ऐसी नीवी (निविग्गई विग्गईरहित) वस्तु योगोवाहक साधु के लिए नीवी (निर्विकृतिक) पच्चक्खाण में कल्पनीय है। अर्थात्- तली हुई वस्तु (विग्गई) के त्याग में भी योगोद्वहन करने वाले साधु-साध्वी नीवी पच्चक्खाण में भी तीभ घान (बार) के बाद की तली हई मिठाई या विग्गई ले सकते है, बशर्ते कि बीच में उसमें तेल या घी न डाला हो। वृद्धाचायो की ऐमी भी धारणा है कि जिस कड़ाही में ये चीजें तली जा रही हो, उस समय उसमें एक ही पूमा इतना बड़ा तला जा रहा हो, जिससे कड़ाही का तेल या घो पूरा का पूरा ढक जाय तो दूसरी बार की उममें तली हुई मिठाई आदि चीजें योगोद्वाहक साधु-साध्वी के लिए नीवी पच्चक्खाण में भी कल्पनीय हो सकती हैं । परन्तु वे सब चीजें लेपकृत समझी जाएंगी। उपर्युक्त दस प्रकार की विग्गइयों में मांस एवं मदिरा तो सर्वथा अभक्ष्य हैं, मधु और नवनीत कथंचित् अभक्ष्य हैं । शेष ६ विग्गइयां भक्ष्य हैं । इन भक्ष्य विग्गइयों में से एक विग्गई से ले कर ६ विग्गइयों तक का पच्चक्खाण अलग-अलग भी लिया जा सकती है और एक साथ सभी विग्गइयों का पच्चक्वाण भी नीवी पच्चक्खाण के साथ लिया जा सकता है। इसमें जो यागार हैं, उनका अर्थ पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। विशेष आगार ये हैं'गिहत्य-संसलैंग'-अर्थात् गृहस्थ ने अपने लिए दूध में चावल मिलाए हों, उस दूध में चावल डालने के बाद अगर वह दूध (उस बर्तन में) चार अंगुल ऊपर हो तो वह विग्गई नहीं माना जाएगा। वह संसृष्टद्रव्य है और नीवी पच्चक्खाण में प्राह है, किन्तु यदि दूध चार अंगुल से ज्यादा ऊपर हो तो वह विग्गई में शुमार है। इसी तरह दूसरी विग्गइयों में भी संसृष्टद्रव्य का भागार आगमों से जान लेना। मतलब यह है कि गृहस्थ द्वारा संसृष्ट द्रव्य साधु-साध्वी नीवी में खा लें तो उनका पच्चक्खाण इस आगार के कारण भंग नहीं होता । 'उक्वित्तविवेगेणं'-अर्थात् आयम्बिल से भागारों में कहे अनुसार सख्त द्रव्य आदि का त्याग होते हुए भी कदाचित् गुड़ आदि किसी कठिन द्रव्य का कण रह जाय और बह खाने में आ जाय तो भी उक्त पच्चक्खाण भंग नहीं होता। किन्तु यह आगार (छूट) सिर्फ कठोर (सस्त) विग्गई के लिए है, तरल विग्गई के लिए नहीं। 'पडच्चमक्खिएणं' अर्थात्--रूखी रोटी आदि नरम रखने के लिए अलामात्रा में गृहस्थ द्वारा उसे चुपड़ दी जाती हो, उसे खा लेने पर भी 'प्रतीत्यम्रक्षित' नामक आगार के कारण यह पच्चक्खाण भंग नहीं होता ; बशर्ते कि उसे खाने पर घी का स्वाद जरा भी मालूम न हो । उगली में लगे हुए मामूली तेल, घी आदि रोटी आदि के लग जाय, उसे खाने पर भी
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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