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________________ 'नमुक्कारसहिय' (नौकारसी) पच्चक्खाण की व्याख्या है। यहाँ 'नमुक्कारसहिय' शब्द में 'नमुक्कार' शब्द के साथ सहिय' शब्द जुड़ा हुआ है. सहियं का अर्थ है- सहित । अतः 'सहियं' शब्द मुहर्तकालसहित का द्योतक है। फिर 'सहियं' शब्द विशेषण है। और विशेषण से विशेष्य का बोध होता है। अतः 'सहिय' शब्द से 'मुहूर्तकालसहित' अर्थ निकलता है । यहाँ फिर प्रश्न उठाया जाता है कि यहाँ 'मुहूर्त' शब्द तो है नहीं, फिर वह विशेष्य केसे हो सकता है ? इसका उत्तर देते हैं कि शास्त्र में इसे काल-पच्चक्खाण में गिना है, और प्रहर आदि काल वाले पोरसी बादि पच्चक्खाण तो आगे अलग से हम कहेंगे, इसलिए उसके पहले यह पच्चक्खाण मुहुतं-प्रमाण का माना जाता है, इसलिए नमुक्कार सहित पच्चक्खाण में मुहूर्त-काल है, यह समझ लेना चाहिए । फिर शंका की जाती है कि इसका काल एक मुहुर्त के बदले दो मुहूर्त का क्यों नहीं रखा गया ?' इसका समाधान यह है कि 'नौकारसी में केवल दो ही आगारों की छूट रखी है, जबकि पोरसी में छह मागार रखे हैं । 'नमुक्कारसहियं' में दो आगार रखने से उसका अल्प-फल मिलता है, क्योंकि एक मुहर्त के अनुपात में ही तो उसका फल मिलेगा ! अतः यह नमुक्कारसी (नमस्कारसहित) का प्रत्याख्यान एक मुहूर्त प्रमाण का ही समझना । वह अल्पकाल का पच्चक्खान भी नमस्कारमन्त्र के साथ है। अर्थात् सूर्योदय होने के बाद एक मुहुर्त पूर्ण होने के बाद भी जब तक नवकार-मन्त्र का उच्चारण न करे, तब तक वह पच्चक्खान पूर्ण नहीं होता । किन्तु दो घड़ी से पहले ही यदि नवकार-मन्त्र बोल कर पच्चक्खान पार ले तो, प्रत्याख्यानकालमर्यादा के अनुसार उसका काल अपूर्ण होने से प्रत्याख्यान भंग हो जाता है । इसस सिद्ध हुआ कि नमुक्कारसी पच्चक्खाण सूर्योदय से मुहूर्तप्रमाणकाल और नवकारमन्त्र के उच्चारणसहित होता है । अब प्रथम मुहुतं किस तरह लेना ? सूत्र प्रमाण से पोरसी के समान वह सूत्र इस प्रकार है "उग्गए सूरे नमोक्कार-सहियं पच्चक्खाइ, चउम्विहं पि आहार, असणं, पाणं, खाइम, साइम, मणत्यणामोगेणं सहसागारेणं वोसिरह।" सूत्र व्याख्या-'उग्गए सूरे' अर्थात् सूर्य-उदय से ले कर 'नमोक्कार-सहिम' अर्थात पंचपरमेष्ठि-नमस्कार-महामन्त्र-सहित और समस्त धातु 'करना' अर्थ में व्याप्त होते हैं, इस न्याय 'पञ्चक्लाई' अर्थात् नमस्कार सहित प्रत्याख्यान करता है। इसमें पचखाण देने वाले गुरुमहाराज के अनुवाद-रूप कहे जाने वाले वचन हैं, उसका स्वीकार करने वाला शिष्य 'पन्चक्खामि' अर्थात-मैं पच्चक्खाण करता हूं' ऐसा बोले, इसी तरह वोसिरह (व्युत्सृजति) के स्थान में भी गुरु-महाराज के कथित वचन का स्वीकार करने के लिए शिष्य अनुवाद के रूप में 'बोसिरामि= (त्याग करता हूं)' बोले। व्युत्सर्ग (त्याग) किसका किया जाय ?, इसे बताते हैं-'बन्विहं पि माहारचार प्रकार के बाहार का त्याग करता हूँ। इस विषय में सम्प्रदाय-परम्परागत अर्थ इस प्रकार है - प्रत्याख्यान करने के पूर्व रात्रि से ले कर चारों आहार का त्याग करना नौकारसी है, अथवा रात्रिभोजन-त्याग व्रत को उसकी तटीय सीमा तक पहुंच कर पार उतरते हुए सूर्योदय से एक मुहर्त (४% मिनट) काल पूर्ण होने पर नमस्कारमंत्र के उच्चारणपूर्वक पारणा करने से नौकारसीपच्चक्खाण पूर्ण होता है । अशन-पान आदि चार प्रकार के आहार की व्याख्या पहले की चुकी है। यहां प्रत्यास्यान भंग न होने के कारण बताते हैं'मणपणामोगेणं सहसागारेष'। यहां पंचमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। बनाभोग और सहसाकार, इन दो कारणों से प्रत्याख्यान खण्डित नहीं होता। अनाभोग का वर्ष हैअत्यन्त विस्मृति के कारण के लिये हुए पच्चक्याण को भूल जाना और सहसाकार का बर्थ है-उतावली या हड़बड़ी में की गई प्रवृत्ति अथवा अकस्मात् = हठात् (यकायक) मुंह में पीज गल लेने या परवाने
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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