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________________ २४ योगशास्त्र : प्रधम प्रकाश थे, मानो, अंगूठों और अंगुलियोंरूपी सपों की मस्तकमणियाँ हों। प्रभु के पैर के गट्टे सुवर्णकमल के अर्द्धविकसित दल की तरह सुशोभित थे। प्रभु के दोनों पैर ऊपर से नीचे तक क्रमशः कछुए के समान उन्नत थे। उनमें नसें नहीं दिखती थी। उनके रोम अपनी कान्ति से चमकते थे। जगत्पति की जांचें हिरनी की जांघों के समान क्रमशः गोल, गौरवर्ण की एव मांस से ऐमी पुष्ट थी कि अन्दर की हड्डियां मांस से लिपटी होने के कारण दिखती नही थीं। उनकी कोमल, चमकीली, पुष्ट जंघाएं केले के स्तम्भ की तरह शोभायमान थी । गोलाकार मांसल घुटने ऐसे लगते थे, मानो रुई से भरे तकिए में दर्पण जड़ा हुआ हो । स्वामी के दो वृषण (अण्डकोष) हाथी के वृपण के समान गुप्त थे। कुलीन घोड़े के लिंग के समान प्रभु का पुरप-चिह्न अति गुप्त था, नथा उसमें नसें जरा भी नहीं दिखती थीं। और वह नीचा, ऊंचा-लम्बा या ढीला नहीं था, अगितु सरल कोमल, रोम-रहित, गोल, सुगन्धित जननेन्द्रिययुक्त, शीतल, प्रदक्षिणावर्त-शंखसदृश, एकधारयुक्त, वीभत्मतारहित, आवर्ताकार था। लिंग का आवरण कोश के समान था। उनकी कमर लम्बी मोटी, मासल (भरी हुई) विशाल व कठोर थी। कटि का मध्यभाग पतला होने से ऐसा मालूम होता था इन्द्र के वज्र का मध्यभाग हो । उनकी नाभि गभोर नदी के आवतं की तरह सुशोभित हो रही थी। उनकी कुक्षि स्निग्ध, मांसल, कोमल, सरल और समान थी। स्वर्णशिला के समान विशाल और उन्नत उनका वक्षस्थल ऐसा मालूम होता था, मानो श्रीवत्सरत्न की पीटिका हो अथवा लक्ष्मीदेवी के क्रीड़ा करने की वेदिका हो। उनके कधे बैल के कन्धों के समान उन्नत मजबूत व पुष्ट थे, और दोनों कन्धों के नीचे उनकी कांख रोम वाले दुर्गन्ध, पसीनों और मल से रहित थी । सर्प के फन के समान पुष्ट एवं घटने तक लम्बी दो बाहें ऐसी लगती थीं, मानो चंचल लक्ष्मी को वश में करने के लिये नागपाश हो । प्रभु को हथेली आम्रवृक्ष के नवीन पल्लव के समान लाल बिना श्रम किये भी कठोर, पसीने से रहित, छिद्ररहित और उष्ण थी। उसके मध्यभाग में दंड, चक्र, धनुप, मत्स्य, श्रीवत्स, वन, अंकुश. ध्वज, कमल, चामर, छत्र. शंख, कलश, समुद्र, मेरुपर्वत. मगरमच्छ, वृपभ, सिंह, घोड़ा, रथ, स्वस्तिक, दिग्गज, प्रासाद, तोरण आदि लक्षण और चिह्न थे । लाल, सरल एवं रक्तिम नखों से युक्त उनके अंगूठे और उगलियां ऐसी लगती थीं, मानो कल्पवृक्ष के सिरे पर माणिक्य-रूप पुष्पों के अंकुर हो । स्वामी के अंगूठे पर पूर्ण यव (जी) प्रकटरूप से ऐसे शोभायमान थे, मानो वे उनके यशरूपी उत्तम-अश्व को विशेष पुष्ट कर रहे हों । प्रभु की अगुलि के ऊर्ध्व भाग में दक्षिणावतं शंख कीसी :सर्वसम्पत्तिदायिनी रेखाए थी। हाथ के मूल म मणिबन्ध पर अंकित तीन रेखाएं तीन जगत को कष्टों से उबारना सूचित कर रही थीं । उनका कण्ठ गोल, लम्बा, तीन रेखाओं से पवित्र, मधुर एव गंभीर आवाज वाला और शख क लहण लगता था। प्रभु का निर्मल, गोल और तेजस्वी मुख ऐमा लगता था, मानो लांछन-रहित दूसग चन्द्रमा हो । मांस मे पुष्ट, कोमल और चमकीले प्रभु के दोनों गाल ऐसे लगते थे, मानो सरस्वती और लक्ष्मी के साथ-साथ रहने वाले दो स्वर्ण-दर्पण हों। अपने भीतर के आवर्त के कारण कन्धे तक लटकते हुए प्रभु के दोनों कान ऐमें शोभायमान हो रहे थे, मानो प्रभु के मुख की प्रभा रूपी दो मीप हों, जो समुद्र के किनारे पड़ी हों। प्रभु के दोनों ओठ बिम्बफल के समान थे। उनके बत्तीस उज्जवल दांत मोगरे के फूल के समान सुशोभित थे । क्रमशः ऊंची व विस्तारयुक्त उनकी नाक बांस के समान लगती थी। प्रभु की ठुड्डी न बहुत लम्बी थी, और न बहुत छोटी, अपितु सम, मांसपरिपूर्ण, गोल एवं कोमल थी। तथा उनकी दाढ़ी-मूछे घने काले केशों से भरावदार, चमकीली, काली एव कोमल थीं। प्रभु की जीभ कल्पवृक्ष के नए पैदा हुए पल्लव के समान लाल और कोमल थी। वह न तो अत्यन्त
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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