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________________ ३८२ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश का त्याग कर मोहनीय आदि औदयिक भाव में परिणमन होना उन्मार्ग है ; उससे लगा हुआ अतिचार तथा 'अकप्पो' अर्थात् कल्प यानी न्यायविधि, आचार तथा चरण-करण-रूप व्यापार ( प्रवृत्ति), इससे जो विपरीत हो, वह अकल्प्य कहलाता है । तात्पर्य यह है कि संयम का कार्य यथार्थस्वरूप में नहीं होने से लगे हुए अतिचार में 'अकरणम्जो' = सामान्यरूप से नहीं करने योग्य कार्य को करने से लगा अतिचार । ऊपर कहे अनुसार उत्सूत्र आदि शब्द कार्य-कारणरूप से परस्पर सम्बन्धित है। उत्सूत्र हो तो व्यक्ति उन्मार्ग में जाता है, उन्मार्ग पर जाने से कल्प्य अकल्प्य का विवेक नहीं रहता । अकल्प्य से व्यक्ति अकरणीय कार्य करता है । इस प्रकार कायिक और वाचिक अतिचार का विशेषस्वरूप बताने के लिए उत्सूत्र से उन्मार्ग तक के शब्दों का प्रयोग किया है। अब विशेषतः मानसिक अतिचार के लिए कहते हैं- बुज्झाओ अर्थात् एकाग्रचित्त हो कर दुष्ट ध्यान करने से उत्पन्न आर्त- रौद्र-ध्यानरूपी अतिचार तथा 'दुचितिओ' अर्थात् चंचलचित्त से दुष्टचिन्तनरूप अतिचार कहा भी है कि 'जं थिरममवसानं तं शाणं, जं चलं तयं चितं' अर्थात् मन का स्थिर अध्यवसाय ही ध्यान कहलाता है, और चचल अध्यवसाय चित्त कहलाता है । यहाँ पर स्थिर और चंचल के भेद कहते हैं - अणायारों' अर्थात् यह श्रावक के लिए आचरण करने योग्य नहीं है अतः अनाचरणीय है और भी अनाचरणीय है- 'अणिच्छिअब्वो' = इच्छा करने योग्य ही नहीं है । इसलिए 'असावगपाउग्गो' अर्थात् जिस गृहस्थ ने सम्यक्त्व स्वीकार किया हो, अणुव्रत आदि व्रतनियम अंगीकार किये हों, सदा साधु के पास जाता हो, साधु श्रावकों की समाचारी या आचारमर्यादा - कर्तव्यकल्प सुनता हो, ऐसे श्रावक के लिए करने योग्य नहीं है । इस प्रकार कह कर अब अतिचार बताने के लिए कहते हैं- जाणे तह बंसणे, चरिताचरित' अर्थात् ज्ञान तथा दर्शन के विषय में, तथा स्थूलरूप से आश्रवत्याग यानी सावद्ययोग से विरताविरत (यानी स्थूलरूप से सावद्ययोग त्याग के कारण चारित्र और सूक्ष्मरूप से सावद्ययोग के त्याग के अभाव के कारण अचारित्र ; इस प्रकार चारित्राचारित्र) जानना । ये देशवरति आराधना के विषय में लगे हुए अतिचार हुए। अब ज्ञानादि-विषयक अतिचार पृथक्-पृथक् रूप से बतलाते हैं - 'सुए' = श्रुतज्ञान के विषय में (उपलक्षण से शेष मतिज्ञानादि चार ज्ञान का ग्रहण करना) ज्ञान के विपरीत - उत्सूत्र प्ररूपणा करना, या काल में स्वाध्याय करना आदि ज्ञानाचार के आठ आचारों का पालन नहीं करना, अतिचार है, उसके सम्बन्ध में तथा 'सामाइए' अर्थात् सामायिक के विषय में, यहाँ सामायिक ग्रहण करने से सम्यक्त्व सामायिक व देशविरति सामायिक जानना, सम्यक्त्व सामायिक में शंका, कांक्षा आदि अतिचार हैं। देशविरतिसामायिक के अतिचार के भेद कहते है - 'तिब्हं गुतीणं' अर्थात् तीन गुप्ति से खडित किया हो, वह अतिचार, यहाँ मन, वचन और काया के योगों के निरोध में तीन गुप्ति पर श्रद्धा न करने से, तथा विपरीत प्ररूपणा करने से, खण्डन = विराधना करने से 'चउच्हं कसायाणं' - अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभरूपी चार कषायों से जिन अप्रशस्त कषायों का करने का निषेध है, उन्हें करने से तथा कषाय-विजय पर अश्रद्धा होने के कारण उनके विपरीत प्ररूपणा करने से तथा 'पंचण्हमनुब्बयाणं, तिन्हं गुणध्वयाण, चउन्हं सिक्लावयाणं' अर्थात् श्रावक के पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों में ( इनका स्वरूप पहले कह आये हैं), 'बारसबिहल्स साबगधम्मस्स वं संडियं जं विराहियं' अर्थात् अणुव्रत आदि सब मिला कर श्रावकधर्म के कुल बारह व्रत होते हैं, उनका देशतः भंग किया हो, अधिक भंग किया हो, मूल से मंग नहीं होने से व्रत की विराधना हुई हो तो 'तस्स मिच्छामि तुक्कडं = अर्थात् उस दिनसम्बन्धी ज्ञानादिविषय में तथा गुप्ति, चार कषाय, बारह प्रकार के श्रावकधर्मरूप चारित्र के विषय में खण्डन = विराधनारूप अतिचार -
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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