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________________ ३८० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश लिए आगे चले तो यह दोष नहीं लगता ॥२॥ गुरुजी के साथ दाहिने या बांये चलने से (७) तथा गुरु के एकदम पीछे चलने से । इससे निःश्वास, छींक, श्लेष्म आदि गुरु के शरीर पर पड़ना संभव होने से आशातना लगती है। (४-५-६) इमी तरह आगे, पीछे, बराबर बहुत पास में सट कर खड़े रहने से, ये तीन माशातनाएं लगती हैं । (७८-६) इसी प्रकार आगे, पीछे, बराबर, साथ में, एकदम सटकर पास में बैठने से भी ऐसी तीन आशातनाएं लगती हैं। (१०) गुरु या आचार्य के साथ शिष्य स्थडिलभूमि गया हो, वहां पहले स्वयं जावे और प्रथम देह शुद्ध करे तो आचमन नाम की आशातना लगती है; (११) गुरु के साथ कोई बात करता हो, उससे गुरु से पहले शिष्य ही बातें करे ; वह पूर्वालापन आशातना है ; (१२) आचार्य के साथ बाहर गया हो, किन्तु वापिस आचार्य के पहले जल्दी लौट कर गमनागमन की आलोचना करे तो गमनागमन की मालोचना नामक आशातना होती है ; (१३) आहार ला कर गुरु से पहले किसी घ के पास आलोचना करे, बाद में गुरु के पास आलोचना करे; (१४) इसी प्रकार आहार ला कर पहले छोटे साध को दिखा कर बाद में गरु को दिखाए: ।१५आहार ला कर गुरु को पूछे बिना ही छोटे साधु की इच्छा यथेष्ट पर्याप्त आहार दे देना; (१६) भिक्षा ला कर पहले किसी छोटे साधु को निमन्त्रण देना, बाद में गुरु को निमंत्रण देना; (१७) स्वयं भिक्षा ला कर उसमें से थोड़ा-सा गुरु को दे कर बाकी का बढ़िया मनोज्ञ वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्श वाला स्निग्ध स्वादिष्ट आहार, व्यंजन आदि स्वय खाए; (१८) रात्रि के समय गुरुमहाराज जब आवाज दें कि 'आर्य ! कौन जागता है ? कौन सोता है ? तब यह सुनने पर भी और जागने पर भी उत्तर नहीं दे तो। (१९) इसी प्रकार दिन को या किसी समय गुरुमहाराज के बुलाने पर भी उत्तर नहीं देना । (२०) गुरु के बुलाने पर भी जहाँ पर बैठा हों, सोया हो, वहीं से उत्तर देना अथवा गुरु बुलाएं, तब आसन या शयन से उठ कर पास में जा कर मत्थएण वदामि' कह कर गुरु की बात सुननी चाहिए ; किन्तु ऐसा नहीं करे तो आशातना लगती है । (२१) गुरु के बुलाने पर 'मत्थएण वंदामि' न कह कर, क्या है ? इस प्रकार तुनक कर बोलना (६२) गुरुमहाराज को शिष्य अविनयपूर्वक रे तू इत्यादि तुच्छ शब्दों से सम्बोधित करे । (२३) रोगी, ग्लान आदि की वयावृत्य (सेवा) के लिए गुरुमहाराज आज्ञा दें, कि 'तुम यह काम करो; तब शिष्य उलटे गुरु को कहे-तुम स्वयं क्यों नहीं कर लेते ? गुरु कहे-'तुम प्रमादी हो।' तब उद्दण्डता से सामने बोले कि - प्रमादी आप हैं।' इस तरह गमने उत्तर देना, तज्जातवचन नाम की आशातना है । (२४) गुरुमहाराज को कठोर वचन कहे अथवा उनमे उच्चस्वर से बोले । (२५) गुरुमहाराज उपदेश देते हों, तब बीच में बिना पूछ ही यह तो ऐसा है, इस प्रकार टोकना । (२६) गुरुजी धर्मकथा करते हों, तब 'यह बात आपको याद नहीं हैं', 'इसका अर्थ आप नहीं समझते' ; इस प्रकार शिष्य बीच बीच में बोले । (२७) गुरुदेव धर्मकथा सुनाते हों, तब उनके पनि मन में पूज्यभाव नहीं होने से शिष्य चित्त में प्रसन्न नहीं होता, गुरु के वचन की अनुमोदना नहीं करता, 'आपने बहुत सुन्दर कहा' ऐसी प्रशंसा नहीं करता ; इससे उसे उपहतमनस्त्व नाम की आशातना लगती है । (२८) जब गुरु धर्मकथा सुनाते हों, तब शिष्य कहे-'अभी तो भिक्षा का समय हुआ है, या अब सूत्र पढ़ाने या आहार करने का समय है, इत्यादि कह कर सभाभेदन (भंग करने की आशातना करे। (२६) गुरुजी व्याख्यान करते हों, तब 'मैं व्याख्यान करूंगा' ऐसा कह कर गुरुजी की सभा और व्याख्यान को बीच में ही तोड़ (भंग कर) देना कया-छेदन आशातना है (३०) आचार्य धर्मोपदेश देते हों, उस समय सभा उठने से पहले ही सभा में अपना चातुर्य बताने के लिए शिष्य व्याख्या करने लगे तो आशातना लगती है। (३१) गुरुजी से आगे, ऊंचे अथवा समान आसन पर शिष्य बैठे तो आशातना होती है। (३२) गुरु की शय्या या आसन के पर लगाना, उनकी आज्ञा के बिना हाथ से स्पर्श करना; इन अपराधों के हो
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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