SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान् महावीर की स्तुति और उनको एक नमस्कार करने का फल इस तरह सिद्ध-(मुक्त) होने के विभिन्न १५ प्रकार है। इसलिए कहा भी है कि-एक से ले कर बत्तीस तक साथ में सिद्ध हों तो उत्कृष्ट आठ समय लगता है। तैंतीस से अड़तालीस तक साथ में सिद्ध होने पर उत्कृष्ट सात समय में, उनचास से साठ तक साथ में सिद्ध होने वाले उत्कृष्ट छ: समय में, इकमठ से बहत्तर तक सिद्ध होने वाले उत्कृष्ट पांच समय में, तिहत्तर से चौरासी तक सिद्ध होने वाले को उत्कृष्ट चार समय में, पचासी से छियानवे तक सिद्ध होने वाले उत्कृष्ट तीन समय में, सतानवे से एक सो दो तक साथ सिद्ध होने वाले उत्कृष्ट दो समय में, और एकसौ तीन से एक सौ आठ तक साथ में सिद्ध होने वाले उत्कृष्ट एक समय में मोक्ष जाते हैं। उसके बाद निश्चय ही अन्तर पड़ता है। सिद्ध के जो १५ भेद कहे हैं, उनमें प्रथम तीर्थसिद्ध और बाद में अतीर्थसिद्ध कहा है. इन दोनों में शेष भेट समाविष्ट हो सकते हैं ; क्योंकि तीर्थकरसिद्ध आदि का तीर्थसिद्ध में अथवा अतीर्थसिद्ध मे समावेश हो सकता है। फिर अन्य भेद की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर देते हैं, आपका तर्क उचित है, फिर भी दो ही भेद कहने से सर्वसाधारण को अन्य भेदों का ज्ञान नहीं हो सकता ; इसलिए दूसरे भेदों को बताना जरूरी है. मगर उन्हें उत्तरभेद कहा जा सकता है। इस तरह मामान्यरूप से सर्वसिद्धों की स्तुति करके निकट उपकारी वर्तमान शासनाधिपति श्री महावीरस्वामी की स्तुति करते हैं जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमसंति । तं देवदेवमहिलं, सिरसा बबे महावीरं ॥२॥ जो देवों के भी देव हैं, जिनको देव दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हैं, तथा जो इन्द्रों से पूजित हैं, उन श्री महावीर स्वामी को मस्तक झुका कर वन्दन करता हूं ॥२॥ 'जो'-भगवान् महावीर स्वामी 'देवाण वि अर्थात् भवनपति आदि सभी देवों के भी पूज्य होने से देवो देव हैं 'देवा पंजली नमसति अर्थात् उन देव को मैं भी विनयपूर्वक दो हाथ जोड़ कर नमस्कार करता हूं। तं देवदेवमहिम' अर्थात् वे देवों के भी देव इन्द्रादि से पूजित महावीरंभगवान् महावीर स्वामी को सिरसा ' अर्थात् मस्तक से वंदन करता हूं। मस्तक से वंदन करता हूं, यह कथन अत्यन्त आदरपूर्वक सत्कार बताने के लिए किया है । अब महावीर कैसे हैं ?' इसे विशेषण द्वारा बताते हैं-सर्वथा कर्मों का नाश करने वाले अथवा जो विशेष पराक्रम से मोक्ष में जाते हैं, उन्हें वीर कहते हैं, और उन वीरों में भी महान् वीर भगवान् महावीर हैं, ऐसा देवताओं ने नाम दिया ; उनको मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूं। इस प्रकार से स्तुति करके फिर परोपकार के लिए और अपने आत्मभावों की वृद्धि के लिए स्तुति का फल बताने वाली गाथा कहते हैं इक्को वि नमुक्कारो, जिनवरवस.स वडमाणस्स । संसारसायरामो, तारेइ नरं . नारी बा ॥३॥ "जिनवरों में उत्तम श्रीवर्धमान स्वामी को किया हुआ एक बार भी नमस्कार, नर या नारी को संसार-सागर से तार देता है।' 'इक्को वि नमुक्कारो अर्थात् बहुत बार नमस्कार करने की बात तो दूर रही, केवल एक बार ही नमस्कार-जो द्रव्य से मस्तकादि झुकाने के रूप में शरीर को संकोच करने से और भाव से मन की एकाग्रतारूप नमन (संकोचलमण) से 'जिनवरsei=यहाँ 'जिन' कहने से श्रुतजिन, अवधिजिन मादि जिनों से भी बढ़कर केवली जिन, और उनमें भी वर=श्रेष्ठ होने से जिनवर हैं, सामान्य केवलियों में भी तीर्थकर नामकर्म के उदय वाले भगवान् उत्तम होते हैं। अतः जिनवरों में वृषभसमान । यों तो ऋषभदेव बादि सभी तीर्थकर वृषभ के समान उत्तम है, इस लिए यहां पर विशेष नाम कहते हैं, 'पबमाणस'
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy