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________________ ३४६ 'नमोत्युणं' के पदों की व्याख्या बाद उन्हें पुन: जन्म लेने का कोई कारण नहीं रहता । कोई कहते हैं कि जब अपने द्वारा स्थापित धर्मतीर्थ को कोई नष्ट करता हो, उसकी तौहीन करता हो, तब उसका पराभव करने के लिए वे पुनः जन्म लेते हैं ; ऐसा लूलालंगड़ा बचाव करना भी अज्ञानरूप है ; क्योंकि मोह ममता के बिना तीर्थ पर मोह (आसक्ति) तथा उसके पराभव को सहन नहीं करने से द्वेप एवं उमके रक्षण आदि के विकल्प राग-द्वेषमोह के बिना नहीं हो सकते। अत. ये विकल्प मोहजन्य ही हैं, और ऐसा मोह होने पर भी उनका मोक्ष है अथवा मोक्ष होने पर भी ऐसा मोह है; बलिहारी है ऐसे मोही ज्ञानियों की ! ऐसा कहना अज्ञानजन्य कोरा मिथ्याप्रलाप है। इस तरह अप्रतिहत श्रेष्ठज्ञानदर्शन के धारक, एवं कर्म और संसार से मुक्तस्वरूप वाले भगवान को स्तोतव्य सिद्ध करके स्तोतव्य संपदा के अन्तर्गत साकारस्वरूपमपदा नामकी दो पद की सातवीं सम्पदा बता दी है। अब भ्रान्तिमात्रमसदविद्या' अर्थात् 'जगत केवल भ्रान्तिरूप है, इस कारण असत् है, और अविद्यारूप है; इस कथन से सभी भावों को केवल भ्रानिरूप मानने वाले अविद्यावादी श्रीअरिहंतदेव को भी परमार्थ से काल्पनिक असतस्वरूप मानते है, उनका खडन करते हुए कहते हैं-'जिणाणं जावयाण अर्थात रागादि शत्रओं को जीतने एवं जिताने वाले जिनेश्वर भगवान को नमस्कार हो। जीवमात्र में रागद्वेष आदि अनुभवसिद्ध होन से वे भ्रान्तिरूप, असत या काल्पनिक नहीं हैं। यदि कोई कहे कि राग आदि का अनुभव होता है, परन्तु वह है भ्रमरूप ही; यह सर्वथा असत्य है; क्योंकि स्वानुभव भी कल्पनारूप माना जाय, तो जीव का जो सुख-दु.ख आदि का अनुभव होता है; वह भी भ्रमरूप हो जायेगा; और इससे मूल सिद्धान्त ही खत्म हो जायेगा । अतः रागद्वेष आदि सत् हैं और उनको जीतने वाले जिन हैं, वे भी सत् हैं, कल्पनारूप नहीं हैं । 'जावयाण' अर्थात रागादि को जिनाने वाले भगवान् को नमस्कार हो । जिनेश्वर भगवान सदुपदेश आदि के द्वारा दूसरी आत्माओं को भी गग-द्वेष आदि शत्रुओं पर विजय कराते हैं। प्रत्येक कार्य में काल को कारण मानने वाले अनन्त के शिष्य भगवान् को भी वस्तुतः ससार-समुद्र से तिरे हा नहीं मानते ; वे कहते हैं --'काल एव कृत्स्नं जगवावर्तयति' अर्थात् 'काल ही सारे जगत को सर्वभावों में परिवर्तित किया करता है; इसका खंडन करते हुए कहते हैं-तिनाणं तारयाणं' अर्थात स्वयं संसार से तरते (पार उतरते) हैं और दूसरे को संसार-समुद्र से तारते = पार उतारते हैं, ऐसे भगवान् को नमस्कार हो । भगवान् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूपी नौका के द्वारा संसार-समुद्र से पार उतर चुके ; इसलिए स्वयं तीर्ण है। इस कारण संसार से पार होने के बाद फिर उनका संसार में आन. सम्भव नहीं है। यदि वे वापिस संसार में आ जाएँ तो मुक्ति असिद्ध हो जायेगी; अतः मुक्त आत्मा फिर कभी संसारी नहीं बनते । वे जिस तरह स्वयं ससार से पार उतरते हैं, वैसे ही दूसरे को भी पार उतारते हैं, इस तरह भगवान तारने वाले भी हैं। जो मीमांसक ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं, अपित परोक्ष मानते हैं, वे तीर्थंकर को बोध-(ज्ञान)वान या बोधदाता नहीं मानते। वे कहते हैं- अप्रत्यक्षा हि नो बुद्धिः प्रत्यक्षोऽर्थः' अर्थात्-हमको वस्तु तो प्रत्यक्ष दिखती है, परन्तु बुद्धि तो प्रत्यक्ष नहीं दिखती है । इसलिए बुद्धि आत्मा से परोक्ष है, यदि वह प्रत्यक्ष होती तो पदार्थ के समान वह भी दीखनी चाहिए।' इसका खंडन करने की दृष्टि से कहते हैं-'बुद्धाणं बोहयाणं' अर्थात् स्वयं बोध-(ज्ञान) प्राप्त करने वाले और दूसरों को ज्ञान कराने वाले भगवान को नमस्कार हो। अज्ञान-निद्रा में सोये हुए इस जगत् में तीर्थकर को जो जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान होता है, वह दूसरों के उपदेश बिना ही स्वविदित होता है इससे वे 'बुद्ध' है। जिस ज्ञान से उस ज्ञान का ज्ञान न हो, उस ज्ञान से पदार्थ का ज्ञान भी नहीं हो सकता।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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