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________________ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश 'तस्स' अर्थात जिस इरियावहिय सूत्र से आलोचनाप्रतिक्रमण किया है, उसकी फिर से शुद्धि करने के लिए काउस्सग्ग करता हूं। इस प्रकार अन्वय करना है। 'उत्तरीकरण' का अर्थ हैइरियावहिय से पापशुद्धि करने के बाद विशेषशुद्धि के लिए। तात्पर्य यह है कि विराधना से पूर्व आलो. चना-प्रतिक्रमण किया है। उसी के लिए फिर कायोत्सर्गरूप कार्य उत्तरीकरण कहलाता है, उस कायोत्सर्ग से पाप-कर्मों का विनाश होता है । उत्तरीकरण प्रायश्चित्तकरण द्वारा होता है। अतः आगे कहा है - 'पायच्छित्तकरणणं' । अर्थात् प्रायः = अधिकृत, चित्त को अथवा जीव को जो शुद्ध करता है या पाप का छेदन करता है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। जिसके करने से आत्मा विशेष शुद्ध होती है । और वह काउस्सग्ग-प्रायश्चित्त भी विशुद्धि का कारण होने से कहते हैं--"विसोहीकरणेणं' अर्थात् अतिचारमलिनता (अपराध) को दूर करके आत्मा की विशुद्धि-निर्मलता करके । वह निर्मलता भी शल्य के अभाव में होती है । इसलिए कहा है-विसल्लीकरणेणं' अर्थात् मायाशल्य, निदान-(नियाणा)शल्य और मिथ्यादर्शनशल्य, इन तीनों शल्यों से रहित हो कर । वह किसलिए ? पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए अर्थात् संसार के कारणभूत ज्ञानावरणीय आदि पापकमों का नाश करने के लिए, ठामि काउस्सग्गं, गमि का अर्थ होता है-करता हूं। और काउस्सग्ग का अर्थ होता है-काया के व्यापार--शारीरिक प्रवृत्तियों का त्याग। क्या सर्वथा त्याग करते हो? सर्वथा नहीं, किन्तु कुछ प्रवृत्तियां अपवादस्वरूप =आगार(ट)रूप में --रख कर काउस्सग्ग करता हूं। वे इस प्रकार-अन्नत्य ऊससिएणं नीससिएणं अर्थात् - उच्छ्वास और निःश्वास को छोड़ कर । मतलब यह है कि श्वासोच्छ्वास का निरोध करना अशक्य है, इसलिए श्वास बींचने और निकालने की छूट रखी गई है। खासिएणं खांसी आने से, छिएणं == छींक आने से, माइएणं =जमुहाई आने से, उड्डएणं = डकार आने से, वायनिसग्गेण अपानवायु खारिज होने से ममलीए=अकस्मात् शरीर में चक्कर आ जाने से पित्तमुच्छाए=पित्त के प्रकोप के कारण मूर्छा आ जाने से; सुहुमेहि अंगसंचालेहि सूक्ष्मरूप से अंग का संचार होने से- शरीर की बारीक हलनचलन से, सुहमेहि खेलसंचालेहि सूक्ष्म कफ या थूक के संचार से सुहमेहि बिट्ठिसंचालेहि सूक्ष्मरूप से नेत्रों के संचार से, पलक गिरने आदि से, अर्थात्-उच्छ्वास आदि बारह कारणों को छोड़ कर शरीर की क्रिया का त्याग करता हूँ। वह कायोत्सर्ग किस प्रकार का हो? एवमाइएहि मागारेहि अमग्गो अविराहिलो हुन्ज मे काउस्सग्गो अर्थात् इस प्रकार ये और इत्यादि प्रकार के पूर्वोक्त आगारों-अपवादों से अखडित, विराधना-रहित मेरा कायोत्सर्ग हो । कुछ आकस्मिक कारण हैं, उन्हें भी ग्रहण कर लेना चाहिए। यानी जब कोई बिल्ली चूहे को पकड़ कर खाने को उद्यत हो, तब चूहे की रक्षा के लिए, अकस्मात् बिजली गिरने को हो, भूकम्प हो जाय या अग्नि-सादि का उपद्रव हो जाय तो बीच में ही कायोत्सर्ग खोल लेने पर भी उसका भंग नहीं होता। यहाँ प्रश्न होता है कि-'ममो अरिहंताणं' कह कर कायोत्सर्ग पूर्ण कर काय-प्रवृत्ति करे तो उसका भंग कैसे हो जायगा ? वस्तुतः ऐसा करने से कायोत्सर्गभंग नहीं होना चाहिए। इसके उत्तर में कहते हैं-प्रत्येक काउस्सग्ग प्रमाणयुक्त होता है। हालांकि जब तक 'नमो अरिहंताणं न कहे, तब तक काउस्सग्ग होता है; तथापि जितने परिमाण में लोगस्स या नवकारमंत्र का काउस्सग्ग करने का निश्चय किया हो, वह पूर्ण करके ही उच्च-स्वर से 'नमो अरिहंताणं' बोला जाता है, तभी काउस्सग्ग अडित व पूर्ण रूप में होता है । काउस्सग्ग पूर्ण होने पर भी 'नमो अरिहंताणं' न बोले तो काउस्सग्ग-भंग होता है। इसलिए कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर 'नमो अरिहंताण' बोलना चाहिए । तथा बिल्ली चूहे पर झपट रही हो
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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