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________________ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश है ? इसी प्रकार जिसने रात्रिभोजन या मदिरापान, मांसाहार आदि अभक्ष्य पदार्थों का त्याग किया हो , वह अजाने में, सहसा या भूल से खा लेता है तो भतिचार लगता है। इस तरह उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत के ये पांचों अतिचार समझने चाहिए। सातवें व्रत के भोजनत. होने वाले अतिचारों के वर्णन के बाद अब उसके दूसरे विभाग केकर्मतः होने वाले अतिचारों का वर्णन करते हैं अमी भोजनतस्त्याज्याः, कर्मतः खरकर्म तु । तस्मिन् पंच शमलान् कर्मादानानि संत्यजेत् ॥६॥ अर्थ-उपर्युक्त पांच अतिचार भोजन की अपेक्षा से त्याज्य हैं। किन्तु कर्म की अपेक्षा से प्राणिघातक कठोरकर्म में परिगणित (परिसीमित) १५ कर्मादान हैं, जो व्रत में मलिनता पैदा करने वाले हैं, अतः उनका भलोमांति त्याग करना चाहिए। ___ व्याख्या- उपर्युक्त पांच अतिचार आहार से सम्बन्धित हैं, जो त्याज्य हैं । अब भोगोपमोगपरिमाण को दूसरी व्याख्या करते हैं कि भोगोपभोग के साधनों को जुटाने या पैदा करने के लिए जो व्यापार-व्यवसाय किया जाय, उसे भी 'भोगोपभोग' शब्द से व्यवहृन किया जाता है। यहाँ कारण में कार्य का आरोप किया जाता है ; इसलिए उक्त कर्म को ले कर की जाने वाली आजीविका के लिए कोतवाल, गुप्तचर, सिपाही, कारागाररक्षक आदि कठोर दंड देते हैं ; जिससे व्यक्ति को पीड़ा होती है, ऐसी खर (कटोर) जीविकाएं १५ हैं। जिन्हें पन्द्रह कर्मादान कहा जाता है। ये ही भोगोपभोगपरिमाणवत के द्वितीय विभाग के त्याज्य १५ अतिचार हैं। ये कर्म पापकर्म-प्रकृति के कारणभूत होते हैं, इसलिए इन्हें कर्मादान कहा गया है। नीचे दो श्लोकों में उनके नामोल्लेख करते हैं अंगार-वन-शकट-भाटक-स्फोटजोविका । दन्त-लाक्षा-रस-केश-विषवाणिज्यकानि च ॥६६॥ यंत्रयोडा-निर्लाग्नमसतापोषणं तथा । दवदानं सरःशोष इति पञ्चदश त्यजेत् ॥१०॥ अर्थ-(१) अंगारजीविका, (२) वनजीविका, (३) शकटजीविका, (४) भाटकजीविका, (५) स्फोटजीविका, (श्लोक के पूर्षि में उक्त 'जीवका' शब्द है। इसी तरह उत्तराई में वाणिज्यक' शब्द है, जिसे प्रत्येक के साथ जोड़ना चाहिए) (६) वन्तवाणिज्य, (७) लामावाणिज्य, (८) रसवाणिज्य, (९) केशवाणिज्य, (१०) विषवाणिज्य, (१२) यंत्रपीड़ाकर्म, (१३) निलांछनकर्म, (१४) असतोपोषण, (१५) दवदान, (दावाग्नि लगाने का कर्म), (१६) सर:शोष-(तालाब आदि का सुखाना)। श्रावक को इन १५ कर्मादानरूप अतिचारों का त्याग करना चाहिये। ___ अब क्रमश १५ अतिचारों की व्याख्या करते हैं । इनमें से सर्वप्रथम अंगारकर्मरूपी आजीविका का स्वरूप बताते है
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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