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________________ ३१२ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश तियग्दिशा का अतिक्रम करने से ये तीनों अतिचार जान लेने चाहिए।' अनाभोग (उपयोग न रहने) से या अतिक्रम आदि से ये अतिचार लगते हैं, किन्तु जानबूझ कर अगर मर्यादा का उल्लघन करने में प्रवृत्त होता है तो सर्वथा व्रतभग हो जाता है । श्रावक इस व्रत का नियम इस प्रकार लेता है - "मैं स्वयं उल्लंघन न करूंगा और न किसी दूसरे से करवाऊंगा।" इस नियम के अनुसार नियत की हुई जगह से आगे की भूमि में स्वयं तो नहीं जाता, किन्तु अगर किसी दूसरे से निर्धारित सीमा से आगे कोई वस्तु मंगवाता या भिजवाता है तो उसे अतिचार लगता है। जिसने केवल अपने लिए ही-अर्थात मैं स्वयं निर्धारित सीमा का उल्लंघन नहीं करूंगा, इस प्रकार से नियम लिया है, उसे दूमरों से मर्यादित भूमि से आगे की वस्तु मंगाने, भिजवाने में दोष नहीं लगता। इस प्रकार दूसरा, तीसरा और चौथा अतिचार हुआ । क्षेत्रवृद्धि नामक पांचवां अतिचार तब लगता है, जब श्रावक एक दिशा में निर्धारित भूमि को मीमा ज्यादा हो, उसे कम करके दूसरी अल्पभूमिनिर्धारित दिशा में अधिक दूरी तक जाता है। जैसे पूर्वदिशा में भूमि की सीमा कम करके कोई पश्चिम दिशा में बढ़ा लेता है तो उसे यह पांचवां अतिचार लगता है । इसी प्रकार मान लो, किसी ने प्रत्येक दिशा में १०० योजन तक गमनमर्यादा की हो, वह किसी एक दिशा मे सौ योजन से अधिक चला गया, इस कारण से अगर वह दूसरी दिशा में उतने योजन गमनमर्यादा में कमी करके दोनों तरफ १०० योजन का हिसाब कायम रखता है तो इस प्रकार क्षेत्रमर्यादा का उल्लंघन व्रत-सापेक्ष होने से उसे यह अतिचार लगता है। यदि बिना उपयोग से, अनजाने में क्षेत्र-मर्यादा का उल्लंघन हो जाय तो वह वापिस लौट आए, ज्ञात होते ही आगे न बढ़े, दूसरों को भी आगे न भेजे । अज्ञानता से कोई चला गया हो या खुद भी भूल से चला गया हो तो वहां जो प्राप्त किया हो, उसका त्याग कर देना चाहिए और उसके लिए 'मिच्छा मि दुक्कर दे कर पश्चात्ताप करना चाहिए । अब भोगोपभोगपरिमाण नामक द्वितीय गुणव्रत के अतिचारों को कहते हैं-- सचित्तस्तेन सम्बद्धः सम्मिश्रोऽभिषवस्तथा । दुष्पक्वाहार इत्येते भोगोपःापमानाः ॥१७॥ अर्थ-(१) सचित्त अर्थात् सजीव, (२) सचित्त से सम्बद्ध -अचित्त आहार में रहे हुए बीज, गुठली लादि सचित्त पदार्थ, (३) थोड़ा सचित्त, और थोड़ा अचित्त - मिश्र आहार, (४) अनेक द्रव्यों से निर्मित मादक पदार्थ, एवं (५) दुष्पक्व-आधा पका, आधा कच्चा आहार अपवा अधिक पका हुआ आहार; इन पांचों का भोगोपभोग करना, दूसरे गुणव्रत के क्रमशः ५ अतिचार हैं। व्याख्या-सचित्त का अर्थ है-चेतना सहित । यानी जो खाद्यपदार्थ सजीव हो, वह सचित्त कहलाता है। ऐसे माहार को, जो अपने आप में वनस्पतिकाय के एकेन्द्रियजीव से युक्त है, सचित्त आहार कहा जाता है । यहाँ प्रश्न होता है कि गृहस्थ को गेहूं आदि सचित्त पदार्थ ले कर ही उसके पकाना पड़ता है, तब वह सचित्त का त्याग कैसे कर सकेगा ? इसके उत्तर में कहते हैं-यहाँ सचित्त आदि पांचों के साथ 'आहार' शब्द जुड़ा हुआ है ; मूल श्लोक में नहीं जुड़ा है तो उसका प्रसंगवश अध्याहार कर लिया जाता है। इसलिए इस व्रत में श्रावक सचित्त का त्याग नहीं करता, और न वह कर सकता है, क्योंकि सचित्त तो मिट्टी, पानी, अग्नि, फल, फूल, साग, भाजी, पत्ते, सभी प्रकार के अनाज, मूग चना आदि दालें इत्यादि सब के सब हैं । इसीलिए वह सचित्त माहार का त्याग करता है। जब कभी वह आहार करता
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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