SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वदारसंतोष और परदारात्याग नामक व्रत के अतिचारों के बारे में स्पष्टीकरण ३०७ स्त्रीयोनि के अतिरिक्त अंगों-जांघ, स्तन, मुख, गाल, कांख, नितम्ब आदि में क्रीड़ा करना भी अनंगक्रीड़ा कहलाती है। श्रावक अत्यन्त पापभीरु होने से मुख्यतया ब्रह्मचर्य का ही पालन करता है। परन्तु जब कभी वेदोदयवश या मोहनीयकर्मोदय के कारण काम-विचार सहने में अत्यन्त असमर्थ होता है, तब केवल विकार की शान्ति के लिए अपनी स्त्री का सेवन करता है। अन्य सभी स्त्रियों के सेवन का तो उसके परित्याग होता ही है। मथुनक्रिया में भी वह सूई में धागा पिरोने के न्याय की तरह ही प्रवृत्त होता है, तीव्र आसक्ति या प्रबल कामोत्तेजना के वशीभूत नही होता है। इसलिए उसका जीवन इतना संयममय होना ही नाहिए कि कामभोग की तीव्र अभिलापा तथा अनगक्रीड़ा से दूर रहे एवं स्वस्त्री के अतिरिक्त संसार की तमाम स्त्रियों को अपनी माता, बहन या पुत्रीतुल्य समझे। जिम अतिकामचेष्टा से कोई लाभ नहीं, बल्कि समय और शक्ति का नाग होता है, धर्मबुद्धि क्षीण हो जाती है, स्मरणशक्ति लुप्त हो जाती है, कभी-कभी क्षय आदि भयंकर राजरोग भी हो जाते हैं, उससे मिष्ठ श्रावक को तो दूर ही रहना चाहिए। इन दोनों निषिद्ध दोपों का जानवूम कर सेवन करने से व्रतभंग हो जाता है। कितने ही आचार्यों का इन पांचों अतिचारों के विषय में उपर्युक्त कथन से अतिरिक्त मत है । वे कहते हैं-"वेश्या या परस्त्री के साथ सिर्फ मथुन-सेवन का त्याग है, आलिंगन, चुम्बन आदि का तो त्याग नहीं है'; यों मान कर कोई स्वदारसंतोषी या परदारात्यागी आलिंगनादि में प्रवृत्त होता है तो कथंचित् व्रतसापेक्ष होने से उस स्थिति में उसे ये दोनों अतिचार लगते हैं। इस दृष्टि से स्वदारसंतोषी को उक्त पांचों अतिचार लगते हैं, परदारावर्जक को पिछले तीन ही अतिचार लगते हैं।' इसके विपरीत कितने ही आचार्य इन अतिचारों के विषय में अलग ही प्रतिपादन करते हैं। वे कहते हैं-"परदारात्यागी को उक्त पांचों ही अतिचार लगते हैं, जबकि स्वदारसंतोषी को तीन ही लगते हैं। और स्त्री को विकल्प से तीन या पांच अतिचार लगते है। वे यों मानते हैं कि अमुक समय के लिए वेश्या को रख कर उसके साप सहवास करने से वेश्या चुकि परस्त्री है, इसलिए व्रतभंग होता है; लेकिन लोकव्यवहार में वेश्या परस्त्री नहीं मानी जाती ; इमलिए व्रतभंग नहीं भी होता; इस तरह परदारात्यागी को भंगाभंगरूप से उक्त अतिचार लगता है। किन्तु स्वदारसंतोषी को व्रतभंग इस अपेक्षा से नहीं होता कि वह कुछ अर्से के लिए बिधवा, प्रोषितभर्तृका (जिसका पति चिरकाल से परदेश में हो), पतितक्ता या जो अपने पति को नहीं मानती हो ; ऐसी स्त्रियों को अपनी मान कर उनके साथ सहवास करता है; परन्तु परदारात्यागी को ऐसी स्त्रियों से सहवास करने पर अतिवार लगता है। क्योंकि लोगों में यही समझा जाता है कि वह उसकी स्त्री है ; परन्तु वास्तव में उसकी स्त्री है नहीं, इसलिए पूर्ववत् अनिचार लगता है ; सर्वथा व्रतभंग नहीं होता । बाकी के परविवाहकरण, तीवकामाभिलाषा और अनंगक्रीड़ा-ये तीनों अतिचार तो दोनों को लगते हैं। यह सब अतिचार पुरुप की अपेक्षा से कहे गए। स्त्री के सम्बन्ध में स्वपतिसंतोष, परपुरुषत्यागी इस प्रकार के दो भेद नहीं हैं। उसके लिए स्वपुरुष के अतिरिक्त सभी परपुरुष ही हैं। अर्थात्स्त्री के लिए स्वपूरुपसंतोषव्रत ही होता है। परविवाह आदि करने पर तीन अतिचार स्वपतिसंतोषी को लगते हैं. शेष दो अतिचार अपने पति के विषय में लगते भी हैं, नहीं भी लगते । वह इस पकारजैसे, किसी स्त्री की सौत हो; और उसके पति का उसके पास जाने का अमुक दिन नियत हो, तो उस दिन उसका अपना पति भी उसके लिए परपुरुष है; इस दृष्टि से वह अपने पति को स्वपरिणीत पुरुष
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy