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________________ २६६ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश व्रत पालन करना ही उचित है, महाव्रत पालन करना तो लोहे के चने चबाने के समान है। अभी तेरा शरीर बहुत ही सुकुमार है । तेरा लालन-पालन भी दिव्य-भोग-साधनों द्वारा हुआ है। छोटा बछड़ा जैसे रथ के भार को सहन नहीं कर सकता, वैसे ही अभी तू संयम के भार को सहन नहीं कर सकेगा।" शालिभद्र ने सविनय उत्तर दिया-"मां ! जो पुरुष भोगसाधनों का उपभोग कर सकता है, वह अगर महाव्रतों के कष्ट को नहीं सह सकता तो, उसके समान कायर और कोई नहीं है।' माता ने दुलार करते हुए कहा"बेटा ! अभी तो तू मत्यलोक की पुष्पमाला की गंध को सहन कर, और भोगों को छोड़ने का अभ्यास कर । धीरे-धीरे अभ्यास से सुदृढ़ हो जाने पर फिर मुनिदीमा अंगीकार करना।" शालिभद्र भी माता का वचन मान कर प्रतिदिन एक पत्नी और एक शय्या (बिछौने) का त्याग करने लगा। राजगृह में ही शालिभद्र की छोटी बहन सुभद्रा का पति धन्ना सार्थवाह रहता था। वह जितना महाधनाढ्य था, उतना ही धर्मवीर भी था । एक दिन सुभद्रा धन्ना को स्नान करा रही थी, तभी उसकी आँखों से गर्म अश्र बिन्दु धन्ना की पीठ पर टपक पड़े। धन्ना एकदम चौंक कर बोल उठे.-'प्रिये ! आज तुम्हारी आँखों में आंसू क्यों ?" सुभद्रा ने गद्गद् स्वर में कहा-"प्राणनाथ ! मेरा भैया म० महावीर के पास मुनिदीक्षा लेने की इच्छा से रोजाना एक पत्नी और एक शय्या छोड़ कर चला जा रहा है। ३२ दिनों में वह सभी पत्नियों और शय्याओं का त्याग कर देगा और मुनि बन जाएगा। पीहर में तो बहन के लिए भाई का ही आधार होता है ! उसे याद करके मन भर आया और अ५ बिन्दु गिर पड़े।" धन्ना ने उपहास करते हुए कहा-"तुम्हारा भाई कायर है, गीध के समान डरपोक और दुर्बल है, जो इस प्रकार धीरे-धीरे त्याग कर रहा है। महाव्रत ग्रहण करना है तो एक ही दिन में क्यों नहीं ग्रहण कर लेता?" सुभद्रा ने कहा-"प्रियतम ! कहना सरल है, करना बड़ा कठिन है। यदि महाव्रत ग्रहण करना सरल है तो आप क्यों नहीं ग्रहण कर लेते?" धन्ना ने प्रत्युत्तर में कहा-'मेरे महाव्रत ग्रहण करने मे तुम ही बाधक थी, इसीलिए मै अब तक महाव्रत न ले सका । अब पुण्ययोग से तुमने ही मुझे प्रोत्साहित करके अनुमति दे दी है। तो लो, आज से तुम मेरी बहन के समान हो, अभी इन्हीं कपड़ों में अविलम्ब मैं दीक्षा ग्रहण करूंगा। सुभद्रा ने कहा-"नाथ ! यह तो मैंने मजाक में कहा था। आपने उसे सच मान लिया। अत: कृपा करके सदा लालितपालित लक्ष्मी और हमें मत छोड़िए। मगर धन्ना को संयम का रग लग चुका था। उसने कहा-"यह लक्ष्मी और स्त्री सभी अनित्य हैं। इसलिए इनका त्याग करके शाश्वतपद प्राप्त करने को इच्छा से मैं अवश्य ही दीक्षा ग्रहण करूंगा।" यों कह कर धन्ना उसी समय उठ खड़ा हुआ। सुभद्रा आदि धन्ना की पत्नियों ने कहा-"ऐसी बात है, तो हम भी आपका अनुसरण करके दीक्षा ग्रहण करेंगी।" अपने को धन्य मानते हुए महामना धन्ना ने उन्हें सहर्ष अनुमति दे दी । संयोगवश श्रमण भगवान् महावीर भी विचरण करते-करते राजगृह के बंभारगिरि पर पधार गए । अतः धन्ना को उसके धर्ममित्र ने ये समाचार दिये । धन्ना भी अपनी अपार सम्पत्ति का दान करके अपनी पलियों के साथ शिविका में बैठ कर श्री महावीर प्रभु के चरणों में पहुंचे और जन्ममरण के भय से उद्विग्न धन्ना ने अपनी पत्नियों सहित दीक्षा अंगीकार कर ली। शालिभा ने जब यह सुना तो 'मैं पीछे रह गया,' यों मान कर दीक्षा के लिए उतावल करने लगा । फलतः महापराक्रमी सम्राट् घणिक ने भी उसका अनुमोदन किया। अतः शालिभद्र ने भी श्रीवीरप्रभु के चरणकमलों में दीक्षा ग्रहण कर ली। से गजराज अपने दलसहित विचरण करता है, वैसे सिद्धार्थनन्दन श्रीवीरप्रभु भी अपने शिष्यपरिवार सहित क्रमशः प्रामानुग्राम विचरण करते हुए अन्यत्र पधार गए । धन्ना और शालिभद्र
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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