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________________ २८८ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश 'छत्तस्स धारण्टठाए इस प्रकार के आगमवचन के अनुसार छत्र धारण करना अनाचीर्ण होने से वह वजित है। रजोहरण तो प्रत्यक्ष जीवरक्षा के लिए प्रतिलेखना करने में उपयोगी होने से उसके रखने में तो कोई विवाद ही नहीं कर सकता। मुखस्त्रिका यानी 'मुहपत्ती' भी उड़ने वाले (सपातिम) जीवों से बचाव के लिए (रक्षार्थ) और मुंह से निकलती हुई गर्म हवा में बाहर के वायुकायिक जीवों की रक्षा के लिए तथा मुख मे रजकण आदि का प्रवेश रोकने के लिए उपयोगी है। पट्ट और चौकी इसलिए उपयोगी है कि वर्षाकाल मे नीलण-फूलण. कुथुआ आदि ससक्त जीवों से युक्त जमीन पर शयन करने का निषेध होने से पट्टे, चौकी आदि पर सोना-बैठना उपयोगी है । शीतकाल और ग्रीष्मकाल में शय्या. संस्तारक (आसन) आदि शयन के लिए उपयोगी होते है । वसति (मकान) या उपाश्रय आदि में निवासस्थान भी साधु के संयमपालन के लिए अत्यन्त उपकारी है । 'जो भाग्यशाली अनक गुणधारक मुनिवरों को ठहरने के लिए मकान (वसति) उपाश्रय आदि देता है, ममझ लो, उसने अन्न, पानी, वस्त्र, शयन, आसन आदि सब कुछ दे दिया है । जहाँ रह कर सभी मुनिगण उस वसति (मकान) का उपयोग करत हैं, उस उपाश्रय में अपनी एव अपने चारित्र की भी सुरक्षा होती है, उसमें ज्ञान, ध्यान आदि की साधना सुकर होती है । इस कारण से वमति (मकान) देने वाले ने सब कुछ दे दिया, ऐसा माना जाता है । सर्दी, गर्मी, चोर, डांम मच्छर, वर्षा आदि से मुनियों की सुरक्षा करने वाला स्वर्गसुख को हस्तगत कर लेता है । इस प्रकार दूमरे भी औधिक और औपग्रहिक धर्मोपकरणों के रखने में मुनियों को दोप नही है । उनके दाता को एकान्तरूप से लाभ ही है। उपकरणों की संख्या-मर्यादा बताते हैं- "जिनकल्पी के लिए १२ प्रकार के, स्थविरकल्पीमुनि के लिए १८ प्रकार के और आर्या (साध्वी) के लिए २५ प्रकार के उपकरण रखने की अनुज्ञा दी है। इसमे अधिक रखना उपग्रह कहलाता है। यह सारी बात पिडनियुक्ति और ओधनियुक्ति आदि आगमों से जान लेना। यहाँ ग्रन्थ विस्तृत हो जाने के भय से इतना ही कह कर लेखनी को विराम देते हैं । यहाँ वृद्धों स्थविरों) द्वारा उक्त समाचारी (धावक को आचारसंहिता) बनाते है -"श्रावकों को पोपध पारित (पूर्ण) करके पारणा करने से पहले साधु-साध्वी विराजमान हो तो उन्हें पहले अवश्य देना चाहिए, फिर आहार करना चाहिए। उसकी विधि यह है कि जब अपने भोजन का समय हो नव कपड़ो वगैरह से अच्छी तरह सुसज्जित हा कर उपाश्रय में जा कर साधुओं को आहारपानी का लाभ देने के लिए विनति करें । उस समय साधु की क्या मर्यादा है ? यह बताते हैं-- एक साधु पल्ले (पाडले) का शीघ्र प्रतिलेखन करे, दूसरा मुखवस्त्रिका का और तीसरा पात्रों का झटपट प्रतिलेखन करे ; जिससे पौषधोपवासी श्रावक को पारणे में विलम्ब या अन्तराय न हो । अथवा साधुओं के निमित्त से स्थापनादोप न लग जाय, इसकी सावधानी रखे । यदि श्रावक प्रथम प्रहर (पौरसी) में आहार के लिए प्रार्थना करता हो और साधु के नौकारसी तक के प्रत्याख्यान हो तो आहार ग्रहण कर ले, यदि नौकारमी तक प्रत्याख्यान न हो किन्तु पौरसी तक के हों तो ग्रहण न करे; क्योंकि उस आहार को संभाल कर रखना पड़ेगा । यदि श्रावक बहुत जोर दे कर विनति करता है तो आहार ले कर उसे स्थान पर ला कर अच्छी तरह सम्भाल कर रख दे और जो साधु पोरसी (एक प्रहर तक) प्रत्याख्यान पूरा होते ही पारना करने वाला हो उसे वह आहार दे दे, अथवा दूसरे साधु को दे दे । साधु भिक्षा के लिए जाने से पूर्व पात्र, पल्ले आदि का प्रतिलेखन कर ले । भिक्षा के लिए कम से कम दो साधु जाएं, अकेले साधु का भिक्षार्थ जाना उचित नहीं। मार्ग में श्रावक साधु के आगे-आगे चले ; और वह साधु को अपने घर ले जाए । वहाँ साधुओं को आसन ग्रहण करने की प्रार्थना करे ; यदि वे बैठे तो ठीक हैं, न बैठें तो भी विनय का आचरण-व्यवहार करना
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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