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________________ २६० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश अब प्रसंगवश नवनीत (मक्खन) भक्षण में दोष बताते हैं अन्तमुहूर्तात् परतः सुसूक्ष्मजः राशयः । यत्रमूर्च्छन्ति तन्नाद्य नवनीतं विवेकिभिः। ३४॥ अर्थ जिसमें अन्तमुहूर्त के बाद अतिसूक्ष्म जन्तुसमूह समूच्छियरूप से उत्पन्न होता है, वह मक्खन विवेको पुरुषों को नहीं खाना चाहिए। इसी बात पर विचार करते हैं एकस्यापि हि जीवस्य हिंसने कियदघं भवेत् । जन्तुजातमयं तत्को नवनीतं निषेवते ?॥२५॥ अर्थ एक भी जीव का वध करने में कितना अधिक पाप लगता है ? उसे कहना दुःशक्य है, तो फिर अनेक जन्तुओं के पिंडमय नवनीत का सेवन कौन विवेकी कर सकता है ? अब क्रमशः मधु-सेवन में दोष बताते हैं अनाज संघात निघातात् समुद्भवम् । 1. गुप्सनायं लालावत् कः स्वादयति माक्षिकम् ॥३६॥ अर्थ अनेक जन्तु-समूह के विनाश से तैयार हुए और मुंह से टपकने वाली लार के समान घिनौने मक्खी के मुख की लार से बने हुए शहद को कौन विवेकी पुरुष चाटेगा? उपलक्षण से यहाँ भौरे आदि का मधु भी समझ लेना चाहिए। अब मधु-भक्षक को निन्दनीय बताते हैं भक्षयन् माक्षिकं क्षुद्रजन्तुलक्षक्षयोद्भवम् । स्ताकज निहन्तृभ्यः शौनिकेम्यातिरिच्यते ॥३७॥ अर्थ जिनके हदिव्यां न हों, ऐसे जीव मुद्रजन्तु कहलाते हैं, अथवा तुच्छ होन जीव भी मद्रमाने जाते हैं। ऐसे लाखों क्ष व्रजन्तुओं के (घुआ करने से होने वाले) विनाश से उत्पन्न हुए मध का सेवन करने वाला आदमी थोड़े-से पशु को मारने वाले कसाई से बढ़कर पापात्मा है। भक्षण करने वाला भी उत्पादक की तरह घातक है, यह बात पहले कह दी गई है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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