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________________ संगमदेव द्वारा म. महावीर पर घोर उपसर्ग नहीं समझा, तब इन्द्र ने उस दुर्बुद्धिदेव की उपेक्षा की। दुर्बुद्धिदेव हठाग्रही होकर भगवान् को विचलित करने के लिए वहाँ से चला। उसके गमन से प्रचंड वायुवेग के कारण बादल भी बिखरने लगे। अपनी रौद्र आकृति के कारण वह महाभयंकर दिखने लगा। उसके भय से अप्सराएं भी मार्ग से हट गई । विशाल वक्षःस्थल से टक्कर मार कर उसने मानो ग्रहमंडल को एकत्रित कर दिये थे। इस प्रकार वह अधम देव वहाँ आया, जहां भगवान् प्रतिमा धारण कर ध्यानस्थ खड़े थे। अकारण जगदबन्धु श्रीवीरप्रभु को इस प्रकार से शान्त देख कर उमे अधिक ईर्ष्या हुई। सर्वप्रथम उस दुष्ट देव ने जगदगुरु महावीर पर अपरिमित धुल की वर्षा की। जैसे राहू चन्द्रमा को ढक देता है, मेघाडम्बर सूर्य को ढक देता है, वैसे ही लि-वर्षा से उसने प्रभु के सारे शरीर को ढक दिया। चारों ओर से धूल की वृष्टि होने से उनकी पांचों इन्द्रियों के द्वार बन्द हो गए, उनका श्वासोच्छवास अवरुद्ध-सा होने लगा। फिर भी जगद्गुरु रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुए। क्या हाथियो से कभी कुलपर्वत चलायमान हो सकता है ? फिर उस दुष्ट ने धूल हटा कर भगवान् के अंग अंग को पीड़ित करने वाली वज्रमुखी चीटियां उत्पन्न की । वे सुई की नोक के समान, तीखे मुखाग्र वाली चीटियां प्रभु के शरीर के एक ओर से स्वेच्छा मे चढ़ कर दूसरी ओर से उतरने लगीं । भाग्यहीन की इच्छा की तरह चींटियों का उपद्रव भी निष्फल हुआ। तब उसने डांम का रूप बनाया। गच है, 'दुरात्माओं के दुष्कृत्य समाप्त नहीं होते।' डांस बन कर जब उसने भगवान के शरीर पर कई जगह डसा तो उससे गाय के दूध के समान रक्त बहने लगा। उससे भगवान ऐसे प्रतीत होने लगे मानो पर्वत से झरना बह रहा हो। ऐसे उपसर्ग से भी जब प्रभु क्षुब्ध नहीं हुए तो दुर्मति संगमदेव ने अतिप्रचंड दंश देने में तत्पर एवं दु:ख से हटाई जा सकने वाली लाल रग की चीटियों का रूप बनाया और प्रभु के शरीर में अपना मुह गहरा गड़ा दिया। उस समय वे चीटियां ऐसी मालूम होती थी, मानो प्रभु के शरीर पर एक साथ रोंगटे खड़े हो गये हों। ऐसे उपसर्ग के समय भी प्रभु अपने योग में दृढ़ चित्त रहे । परन्तु देव तो किसी भी तरह से उनका ध्यान-मंग करने पर तुला हुआ था। अतः उमने बड़े-बड़े जहरीले बिच्छू बनाए, वे प्रलयकाल की आग की चिनगारियों के समान या तपे हुए बाण के समान भयंकर टेढ़ी पूछ करके अपने कांटों से प्रभु के शरीर को काटने लगे। उससे भी जब नाथ क्षब्ध नहीं हुए तो कूट-संकल्पी देव ने तीखे दांतों वाले नेवले बनाए, वे खि-खि शब्द करते हुए दांतों में भगवान के शरीर से मांस के टुकड़े तोड़ तोड़ कर नीचे गिराने लगे। उससे भी जब उसकी इच्छा पूर्ण न हुई तो क्रुद्ध होकर उसने यमराज की बाहों के समान प्रचण्ड एवं अति उत्कट फनों वाले सर्प बनाये। जैसे महावृक्ष पर बेल लिपट जाती है, वैसे ही मस्तक से ले कर पैर तक प्रभु महावीर के शरीर से वे लिपट गये और फनों से इस प्रकार प्रहार करने लगे कि उनके फन भी फटने लगे। उन्होंने इस प्रकार डसा कि उनके दांत भी टूट गये । वे निविष बन कर रस्सी की तरह गिर पड़े। उसके बाद निर्दय देव ने तत्काल ववसम कठोर तीखे नखों एवं दातों वाले चूहे बनाए। वे अपने दांतों और मुह से प्रभु के अंगों को नोच-नोच कर खाने लगे । और घाव पर नमक छिड़कने की तरह किए हुए घाव पर पेशाब करने लगे । परन्तु ऐसा करने पर भी जब वे भगवान् को विचलित करने में सर्वथा असफल रहे, तब भूताविष्ट और मूसल के समान तीखे दंतशूल वाले हाथी जैसा रूप बनाया। जिसके पर धरती पर पड़ते ही धरती कांप उठती थी और मानो नक्षत्रमण्डल और आकाश को नाप लेगा, इतनी ऊँची सूड उठा कर प्रभु पर टूट पड़ा । उसने अपनी प्रचंड सृड से प्रभु को पकड़ कर आकाश में बहुत ऊंचा उछाला । नीचे गिरते ही इसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे, इस बदनीयत से फिर हाथी ने
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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