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________________ संतोष की महिमा और आशा-तृष्णा के कारण जीवन की विडम्बना २४५ अर्थ जिसके पास संतोषरूपी आभूषण है, समझ लो, पद्म आदि नौ निधियां उसके हाथ में हैं ; कामधेनु गाय तो उसके पोछे-पीछे फिरती है और देवता भी दास बन कर उसको सेवा करते हैं। व्याख्या मंतोपत्नी मुनि शम के प्रभाव से निनके की नोक से रत्नराशि को गिरा सकते हैं । वे इच्छानमार फल देने वाले होते हैं. देवता भी निम्पर्धापूर्वक उमकी मेवा के लिए उद्यत रहते हैं। इसमें कोई मंशय नहीं है । मंनोप के ही गम्बन्ध में कुछ श्लोकों का अर्थ यहाँ प्रस्तुत करन हैं - धन धान्य, मोना, नांदी, अन्य धाता, खेत, मकान द्विपद चतुष्पद जीव; यह नौ प्रकार का बाह्य परिग्रह है। राग, पाय, शोक, हाम्य, भय, रति, अर्गन, जूगुप्मा, तीन बेट. और मिथ्या-त्र, यह चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह हैं। जैसे वर्षाकाल में चहं और पागल कुत्तं विप के प्रभाव से उपद्रवी बन जाने हैं ; वैसे ही बाह्यपरिग्रह से प्राय आभ्यन्तर परिग्रह- कपाय आदि बढ़ने हैं। परिग्रहरूपी महावायु गहनमूल वाल मृदृढ़तर वंगग्यादि महावृक्ष को भी उखाड़ फेंकना है। परिग्रह के यान पर बैठ कर जो मोक्ष पाने की अभिलापा करता है वह सचमुच लोहे की नौका में बैठ कर समुद्र पार करने की आशा करता है । इन्धन से पैदा हुई आग जिस प्रकार लकड़ी को नष्ट कर डालती है, उसी प्रकार बाह्यारिग्रह भी पुरुष के घंर्य को नष्ट कर डालता है । जो निबंल व्यक्ति बाह्यपरिग्रह के मगों पर नियंत्रण नहीं कर सकता, वह पामर आभ्यन्तर परिग्रहरूगी सेना की कैसे जीन मकता है ? एकमात्र परिग्रह ही अविद्याओं के क्रीड़ा करने का उद्यान है ; दुखरूपी जल से भरा ममुद्र है, तृष्णारूपी महालना का अद्वितीय कन्द है। आश्चर्य है, धनरक्षा में तत्पर धनार्थी सर्वमम्बन्धों क त्यागी मुनि म भी साशंक रहते हैं। गजा, (मरकार , चोर, कुटुम्बी, आग, पानी आदि के भग से उद्विग्न धन में एकाग्र बना हआ धनवान रान को सो नहीं पता। दुष्काल हो या सुकाल, जंगल हो या बस्ती, सर्वत्र शकाग्रस्त एव भयाकुल बना हुआ धनिक सर्वत्र गदा दुःखी रहता है। निर्दोष हो या मदोप निर्धन मनुष्य उपर्युक्त सभी चिन्ताओं से दूर रह कर मख स साना है, मगर धनिक जगत में उत्पन्न दोपों के कारण दु.खी रहता है। धन उपाजन कने में, उसकी रक्षा करने में, उमका व्यय करने पर या नाश होने पर सर्वत्र और सर्वदा मनुष्य को दुख ही देता है। कान पकड़ कर भाल को नचाने की तरह धन मनुष्य को नचाता है। धिक्कार है ऐसे धन को ! माप के टुकड़े को पाने के लोभ में कुत्ते जिस प्रकार दूमरे कुत्तों से लड़ते हैं उसी प्रकार धनवान राग स्वजनों के साथ ल:ते है पवा पीड़ा पाते हैं। धन कमाऊं. उसे रख . उस बढ़ ऊ. इस प्रकार अनेक आशाएं यमराज के दांनरूपी यंत्र मे फंमा हुआ भी धनिक नहीं छोड़ता। रिशानी की तरह यह धनाशा जब तक पिंड नही छोटी, तब तक मनुष्य को अनेक प्रकार की विडम्बनाए दिमलाती ई। यदि तुम्हें मुख, धर्म और मुक्ति के साम्राज्य को पाने की इच्छा है तो आत्मा ने भिन्न पदार्थों का त्याग कर दो, केवल आशातृष्णा को अपने काबू में कर लो। आशा स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) रूपी नगर म प्रवेश को रोकने वाली एवं वज्रधागओं से अभेद्य बड़ी भारी अर्गना है। आशा मनुष्यों के लिए गक्षसी है। वह विषमजरी है. पुरानी मदिरा है। धिक्कार है, सर्वदोनों की उत्पादक आशा को ! वे धन्य हैं, वे पुण्यवान है, और वे ही ससारसमुद्र को तरते हैं जिन्होंने जगत को मोह में डालने वाली आशासपिणी को वश में कर लिया है। जगत् मे वे ही सुख से रह सकते हैं, जिन्होंने पापलता के ममान दुख की खान, सुखनाशिनी अग्नि के समान अनेक दाषो की जननी आशा तृष्णा को निराश कर दिया है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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