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________________ परिग्रह से होने वाले दोष २२७ अर्थ से अधिक वजन हो जाने पर जहाज समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही प्राणी परिग्रह के बोस के कारण संसाररूपी समुद्र में डूब जाता है। इसलिए परिग्रह का त्याग करना चाहिए। व्याख्या जैसे अमर्यादित धन, धान्य आदि माल से भरा हुवा जहाज अत्यधिक भार हो जाने से समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही जीव भी अगर धन, धान्य, घर, मकान, जमीन-जायदाद व खेत आदि वस्तुएँ अमर्यादित यानी आवश्यकता की सीमा से अधिक रखता है तो वह भी उस परिग्रह के बोझ से दब कर नरक बादि दुर्गतियों में डब जाता है। कहा भी है-महारम्भ, महापरिग्रह, मांसाहार और पंचेन्द्रियजीवों का वध, इन चारों में से किसी भी एक के होने पर जीव नरकायु उपार्जित करता है और अतिआरम्भ एवं अतिपरिग्रह के कारण नरकायु का बंध करता है। इसलिए धन, धान्य आदि पर मूर्छा-ममतारूप परिग्रह का त्याग करे तथा आवश्यकता से अधिक पदार्थों को परिग्रहरूप मान कर उसका भी त्याग करे। सामान्यरूप से परिग्रह के दोष बताते हैं वसरेणुसमोऽध्या न गुणः कोऽपि विद्यते । दोषास्तु पर्वतस्थूलाः प्रादुःष्यन्ति परिग्रहे ॥१०॥ अर्थ इस परिग्रह में प्रसरेणु (सूक्ष्मरजकण) जितना भी कोई गुण नहीं है। प्रत्युत उसमें पर्वत जितने बड़े-बड़े दोष पैदा होते हैं। व्याख्या मकान की खिड़की से अंदर छन-छन कर आती हुई सूर्यकिरणों के साथ बहुत ही बारीक अस्थिर रजकण दिखाई देते हैं, परिग्रह से उक्त रजकण जितना भी कोई लाभ नहीं होता; न परिग्रह के बल पर किसी भी जीव को परभव (अगले जन्म) में किसी प्रकार की सिद्धि या सफलता प्राप्त होती है, न हुई है। परिग्रहपरिगणित वस्तुएं उपभोग या परिभोग आदि करने में जरूर आती हैं, लेकिन वह कोई गुण नहीं है, बल्कि परिग्रहजनित आसक्ति से दोष, व कर्मबन्धादि हानि ही होती है। जिनमन्दिर, उपाश्रय आदि बनाने के तौर पर परिग्रह का जो गुण शास्त्र में वर्णित है, वह गुण (कर्मक्षयरूप) नहीं है, परन्तु वह परिग्रह सदुपयोगरूप (अनेक लोगों के धर्मध्यान, बोधिलाभ आदि में निमित्त होने से पुण्यरूप) बताया है। वस्तुतः देखा जाय तो जो जिनमन्दिर आदि बनवाने में परिग्रह धारण करता है. उसका आशय भी कल्याणकारी (कर्मक्षयरूप) नहीं है। धर्मकार्य के लिए धन की इच्छा करने की अपेक्षा धर्मकार्य के लिए धन की इच्छा ही न करना श्रेष्ठ है। पैर को कीचड़ में डाल कर बाद में उसे घोने के बजाय पहले से कीचड़ का दूर से स्पर्श न करना ही अच्छा है। क्योंकि कोई व्यक्ति स्वर्णमणिरत्नमय सोपानों और हजारों खंभों वाला तथा स्वर्णमय भूमितलयुक्त जिनमन्दिर बनवाता है, उससे (उक्त पुण्यवंधल्प कार्य से) भी अधिक (कर्मक्षय-संवरनिराधर्मरूप) फल तप-संयम या व्रताचरण में है । इसीलिए 'संबोषसत्तरि वृत्ति' में स्पष्ट बताया है कि उसकी अपेक्षा तपसंयम में बनन्तगुण अधिक है ।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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