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________________ पणा अभयारानी द्वारा सुदर्शन पर दोषारोपण और राजा द्वारा मृत्युदंड की घोषणा २२१ सबेरा होता देख कर अभया ने अपने नखों द्वारा अपने शरीर को नोंच गला, अपने कपड़े फाड़ लिये और जोर-जोर से चिल्लाने लगी- 'अर दौडी-दौड़ो ! मुझे बचाओ, यह दुष्ट मुझ पर बला. त्कार करना चाहता है।" हल्ला सुन कर चौकीदार तुरंत महल में दौड़े आए। उन्होंने वहाँ कायोत्सर्ग में निश्चल खड़े सुदर्शन को देखा । चौकीदारों ने सोचा "हमारी समझ में नहीं आना । यह अनहोनी बात कैसे हो सकती है ?' उन्होंने सीधे राजाजी के पास जा कर सारा हाल बयान किया। इस पर राजा अभया के पाम आए । उसका बेहाल देख कर राजा ने पूछा तो अभया ने रोते-रोते कहा"नाथ ! मैं आपकी आज्ञा से कल यहां रुक गई थी। अचानक पिशाच के समान यह मेरे महल में घुस आया और मुझे देखते ही भूखे भेड़िये की तरह कामोन्मत्त हो कर पहले तो इस कामव्यसनी पापी ने मधुर वचनों से मुझ से रतिसहवास करने की प्रार्थना की। इस पर मैंने इससे कहा- "सती कदापि असती के समान चंष्टा नहीं कर सकती । क्या चने की तरह कालीमिर्च चबाई जा सकती है ?' जब मैं इसके वश में नहीं हुई तो इसने मुझ पर बलात्कार करने की कोशिश की और मेरा ऐसा बुरा हाल कर दिया ! इस पर मैं जोर से चिल्लाई । अबला के पास और बल ही कौन-सा है ?' राजा को भी सुन कर विश्वास नहीं हुआ कि सुदर्शन ऐसा कर सकता है। राजा ने वास्तविकता जानने की दृष्टि से सुदर्शन से इस विषय में बार-बार पूछा कि-"श्रेष्ठी ! मच-सच बताओ, बात क्या है ?" परन्तु राजा के द्वारा बार-बार पूछे जाने पर भी दयापरायण सुदर्शन ने रानी पर दया करने की दृष्टि से कुछ भी जबाव नहीं दिया। 'चन्दन .त्यन्त घिसे जाने पर भी दूसरे का ताप शान्त करता है ।' सुदर्शन का बिलकुल मौन रहना पारदारिक चोर होने का लक्षण मान कर राजा ने क्रुद्ध हो कर उमे गिरफ्तार करवाया और मारे नगर में उसके अपराध की घोपणा करवाई कि सुदर्शन घोर पापी है, अनः गजा ने इमका वध करने की आज्ञा दी है।' राजाओं को कार्यसिद्धि वचन से और देवों की मन से होती है। राजाज्ञा होते ही राजपुरुषों ने पकड़ कर सुदर्शन को गधे पर बिठाया। उसके मुंह पर काली श्याही पोत दी, उसके पर लालचंदन का लेप किया, मस्तक पर करवीर के फलों की माला और गले में कंकोल की माला डाल दी। फिर सूप का छत्र धारण किये ढोल बजाते और गधे को नगर में घुमाते हुए सुदर्गन का जुलूस निकाल रहे थे। बीचबीच में गजपुरुप चौराहों पर रुक कर जोर से ढोल पीट कर घोषणा करते जाते थे कि-"इस पापात्मा ने राजा के अन्तःपुर में भयंकर अपराध किया है, इसलिए इसे वध किया जाता है । गजा का इस संबंध में कोई कमूर नही है ।" लोगों ने जब यह घोषणा सुनी तो वे भौंचक्के-से रह गए । सोचने लगे 'यह बात तो किमी भी तरह से मानने में नही आ सकनी ! लगता है. इसमें कोई षड्यंत्र हो । परन्तु राजाज्ञा के आगे मभी निरूपाय थे। वैसे लोगों में हाहाकार मच गया। इस तरह नगर में घुमाते-घुमाते जब सुदर्शन को उसके घर के सामने लाया गया तो सती मनोरमा वह सारा दृश्य देख कर स्तब्ध हो गई । उसने सोचा . - मेरे पतिदेव सदाचारी हैं, यह बात मैंने कई बार उनमें देखी है। राजा भी इनके आचार पर प्रेम रखते थे । पर आज का यह दुर्दश्य देखते हुए जान पड़ता है देव (भाग्य) ही प्रतिकूल है । अवश्य ही पूर्वजन्म के किन्हीं अशुभकर्मों का फल इन्हें प्राप्त हुआ है । इसके निवारण का अब सिवाय प्रभु प्रार्थना के और कोई उपाय नहीं है। कृतकों का फल तो अवश्यमेव भोगना पड़ता है।' यों अन्तर्मन में निश्चय करके कायोत्सर्गस्थ हो कर जिनेश्वर देव की भक्ति में तल्लीन हो गई । अन्त मे शासनाधिष्ठात्री देवी से विनति की-"भगवती ! मेरे पति में कुशीलदोप की सम्भावना नहीं है। इसलिए इस परम धर्मात्मा श्रावक का सहायता करोगो, नभी मैं कायोत्सर्ग पूर्ण करूंगी, अन्यथा मैं इसी
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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