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________________ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश २१० जाय, तब सूर्य का ही एकमात्र शरण लिया जाता है।' स्वयं संकट में होते हुए भी श्रीराम उसका संकट मिटाने को तैयार हुए। 'महापुरुष अपना कार्य सिद्ध करने की अपेक्षा परकार्य के लिए अधिक प्रयत्नशील होते हैं ।' विराध ने सीताहरण का वृत्तान्त सुग्रीव से कहा। सुग्रीव ने हाथ जोड़ कर श्रीराम से सविनय निवेदन किया- 'समग्र विश्व को जैसे सूर्य प्रकाशित करता है, वैसे ही आप सब की रक्षा करने में समर्थ हैं। आपको किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं रहती। फिर भी हे देव ! मेरी आपसे प्रार्थना है कि आपकी कृपा से शत्र को मारने में अपनी सेनासहित मैं आपका अनुगामी बनूंगा और शीघ्र से शीघ्र सीता के समाचार लाऊंगा ।' सुग्रीव के साथ श्रीराम ने किष्किन्धा की ओर प्रयाण किया । विराध भी साथ-साथ आना चाहता था, लेकिन श्रीराम ने उसे समझा-बुझा कर वापिस लौटा दिया। श्रीराम सुग्रीव के साथ आगे बढ़ते गए। उन्होंने किष्किन्धानगरी के पास अपनी सेना का पड़ाव डाला और युद्ध के लिए नकली सुग्रीव को ललकारा । कपटी सुग्रीव भी गर्जन तर्जन करता हुआ बहा आ धमका। कहावत है 'भोजन का न्यौता मिलने पर ब्राह्मण आलस्य नहीं करते, वैसे ही युद्ध का आमंत्रण मिलने पर शूरवीर आलस्य नहीं करते।' वहीं जगल के हाथी की तरह मदोन्मत्ततापूर्वक लड़ते हुए दोनों सुग्रीव अपने पैरों से पृथ्वी को कंपाने लगे। दोनों का रूप एकसरीखा होने से श्रीराम संशय में पड़ जाते कि मेरा सुग्रीव कौन-सा और नकली सुग्रीव कौन सा है ? इससे वे क्षणभर उदासीनसे हो कर यह सोचने लगे कि जो होने वाला है, वह तो होगा ही। दूसरे ही क्षण उन्होंने वज्रावर्त नामक धनुष्य की टंकार की । उस टंकार को सुनते ही साहसगति की रूपपरावर्तनी विद्या जाती रही । अब अपने असली रूप में आते ही श्रीराम ने साहसगति को ललकारा दुष्ट ! रूप बदल कर सबकी आख में धूल 'झौंक कर तू परस्त्रीरमण करना चाहता है, पापी ! अपना धनुष्य तैयार कर ।' यो कह कर श्रीराम ने एक ही वाण मे उसका काम तमाम कर दिया। क्योंकि हिरण को मारने में सिंह को दूसरे पजे की आवश्यकता नहीं पड़ती। अब श्रीराम ने विराध की तरह सुग्रीव को भी किष्किन्धान गरी की राजगद्दी पर बिठाया । राजा सुग्रीव भी पहले की तरह प्रजा मान्य बन गया । ! इधर विराध भी राम के कार्य के लिए सेना ले कर आया। सच है, कृतज्ञपुरुष अपने स्वामी का कार्य किये बिना सुख से नहीं रह सकता ।' भामण्डल भी विद्याधरों की सेना ले कर वहाँ आ पहुंचा । 'कुलीनपुरुष स्वामी के कार्य को उत्सव से भी बढ़कर समझता है ।' सुग्रीव ने जाम्बवान. नल, नील, आदि अपने प्रसिद्ध पराक्रमी सामन्त राजाओं को चारों ओर से ख़बर भेज कर वहाँ बुलाए । इधर अन्य विद्याधर राजाओं की सेना भी जब चारों ओर से आ-आ कर वहाँ जमा हो गई; तब सुग्रीव ने श्री राम को प्रणाम करके सविनय निवेदन किया- 'देव यह अंजनादेवी और पवनंजय का पुत्र अतीव बलशाली मेवापरायण हनुमान है। यह आपकी आज्ञा से सीताजी का समाचार लेने लंका जाएगा । आप इसे आशीर्वाद दें और पहिचान के लिए अपनी नामांकित मुद्रा दें ।' श्रीराम ने हनुमान को सारी बातें मक्षेप मे समझा दी और अपनी मुद्रिका दे कर आशीर्वाद दिया । पवनपुत्र हनुमान भी हवा की भांति अत्यन्त तीव्रगति से आकाशमार्ग से चल पड़ा। कुछ ही समय मे वह लंका पहुंच गया। लंका में रावण के उद्यान मे शिशपावृक्ष के नीचे मंत्रजप की तरह राम-ध्यान करती हुई सीता को देखा । वृक्ष की शाखा में अदृश्य हो कर हनुमान ने ऊपर से सोता की गोद में परिचय के लिए मुद्रिका डाली । रामनामांकित मुद्रिका को देखते ही सीता अत्यन्त प्रसन्न हुई । इमे देख कर त्रिजटा राक्षसी ने रावण के पास जा कर निवेदन किया- 'देव ! इतने अर्से तक हमने सीता को चिन्ताग्रस्त देखा था, लेकिन
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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