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________________ २०० योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश कार्यों से स्वतः सफल होते हैं।" लक्ष्मण के साथ राम उसे ले कर राजगद्दी दिलाने जा रहे थे कि रास्ते में भामण्डल का एक सेवक विद्यारहित हो कर पड़ा हुआ देखा । वह होश में था। इसलिए उसने जटायू, सीता ओर रावण का तथा अपना सारा वृत्तान्त निवेदन किया । राम ने उसे आश्वासन दिया । उसके पश्चात् लक्ष्मण के साथ सत्यप्रतिज्ञ राम पाताललंका पहुंचे और उक्त विराध को अपने पिता को राजगद्दी पर बिठाया । इधर साहसगति नाम का विद्याधर नेता आकाश में भ्रमण करता हुआ किष्किन्धा नगरी के निकट आया । उस समय किष्कन्धा नगरी का राजा सुग्रीव नगरी के बाहर सैर करने के लिए अपने परिवार के साथ जा रहा था। सचमुच राजाओं को मन.स्थिति ऐसी होती है। ठीक उसी समय साहस. गति सुग्रीव के अन्तःपुर में पहुंच गया। वहां सुग्रीव की पत्नी सुनयन। तारा को देख कर वह कामविह्वल हो गया। गर्मी से पीड़ित हाथी के समान, काम की गर्मी से पीड़ित साहसगति ने तारा के साथ रतिक्रीड़ा करने की लालसा से अन्यत्र जाने का विचार टाल दिया; मानो कामदेव की आज्ञा का उलघन न करने की दृष्टि से ही आगे जाने का विचार स्थगित कर दिया हो । परन्तु उसने सोचा - यह रमणी मुझ अपरिचित के साथ सहसा रमण करने को तैयार नहीं होगी। इस चिन्ता से व्यग्र हो कर सोचते-सोचते उसे एक बात सूझी कि मैं तो स्त्री या पुरुष का चाहे जैसा रूप बदलने में नट के समान कुशल हूं, अतः क्यों नही, सुग्रीव का वेश बना लूं।' यों विचार कर साहसगति सुग्रीव का वेष बना कर उसके महल में घुसने लगा। महल के अंगरक्षकों ने स्त्रीलम्पट कृत्रिम सुग्रीव को ही असली सुग्रीव समझ कर महल में जाने से नहीं गेका । अभी वह महल तक पहुंचा नहीं था कि असली सुग्रीव बाहर से लोट कर ज्यों ही अन्तःपुर में घुसने लगा, त्यों ही वहाँ के पहरेदारों ने उसे अंदर जाने से रोका । अतः वह महल के द्वार के पास वापिस आ कर खड़ा हो गया। पहरेदारों से बार बार कहने पर भी उन्होंने असली सुग्रीव को यह कह कर अंदर प्रवेश नहीं करने दिया कि "अभी-अभी तो राजा ने प्रवेश किया है। मालूम होता है, तुम कोई और हो।" इस पर से आपस में वादविवाद छिड़ गया । अतः पहरेदारों ने नकली सुग्रीव को बाहर बुलाया। उसके आते ही दोनों में समुद्र के समान अतुल कोलाहलमय वाग्युद्ध छिड़ गया । दूसरे सग्रीव के कारण उपद्रव होते देख कर बालिपुत्र उस उपद्रव को शान्त करने के लिए अन्तःपुर के द्वार के पास शीघ्र ही आ पहुंचा । नदी के पूर को जैसे पर्वत रोक देता है वैसे ही नकली सुग्रीव को बालिपुत्र ने अन्त.पुर में जाने से रोक दिया। चौदह रत्नों के समान जगत् की श्रेष्ठ चौदह अक्षौहिणी सेना वहाँ मा कर डट गई । उन दोनों के रहस्य को न समझ पाने के कारण पूरी सेना में आधे सैनिक बनावटो सुग्रीव की तरफ और आधे असली सुग्रीव की तरफ हो गए। इस तरह दोनों की तरफ बटी हुई सेना में ही परस्पर युद्ध छिड़ गया । भाले से माले टकराए। आकाश में शस्त्रों के परस्पर टकराने से निकलती हुई चिनगारियों से आकाश ऐसा दिखाई देने लगा, मानो वह उल्कापात वाला हो। अश्वारोहियों के साथ अश्वारोही, हाथियों के साथ हाथी, पैदल के साथ पैदल एवं रथिकों के साथ रथिक भिड़ गए। प्रौढ़प्रियसमागम से जैसे मुग्धा रमणी कांप उठती है वैसे ही दोनों चतुरंगिणी सेनाओं की आपसी टक्कर से पृथ्वी कांपने लगी। कोई मसला हल न होते देख कर सच्चे सुग्रीव ने नकली सुग्रीव को ललकारा-'अरे, पराये घर में घुसने वाले नीच कामी कुत्ते ! आ मेरे साथ लड़ ! अभी तुझे छठी की याद दिला देता हूं।' कृत्रिम सुग्रीव भी इस अपमान की चोट से मदोन्मत्त हाथी की तरह उछलता और जोर से गर्जन करता हुमा असली सुग्रीव से युद्ध करने बाया। क्रोध से लाल-लाल आँखें किये यमराज के सहोदर की तरह वे दोनों महारथी तटस्थ दर्शक प्रजा के मन को कचोट रहे थे। वे दोनों अपने तीखे हथियारों से पास की तरह दोनों तरफ की सेना को काटते हुए लड़ रहे थे। जैसे दो भैंसों की लड़ाई में वृक्ष-वन का सत्यानाश हो जाता
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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