SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६७ दुश्चरित्र स्त्रियों के साथ सहवास से नाना प्रकार की हानियाँ इसी के समर्थन में कहते हैं ञ्चकत्वं नृशंसत्वं चञ्चलत्वं कुशीलता । इति नैसर्गिका दोषा यासां तासु रमेत कः ॥८४॥ अर्थ स्वभाव से (नगिकरूप से) जिनमें वञ्चकता (गाई), निर्दयता, चंचलता और कुशीलता (संयमाभाव) आदि दोष होते हैं. उन (तुच्छ स्त्रियों) में कौन समझदार पुरुष रागबुद्धि से (आसक्तिपूर्वक) रमण कर सकता है ? स्त्रियों में सिर्फ इतने ही दोप नहीं हैं, अपितु और भी कई दोष हैं, उन्हें बताते हैं - प्राप्तुपारमपारस्य पारावारस्य पार्यते । स्त्रीणां प्रकृतिवाणां दुश्चरित्रस्य नो पुन. ॥८॥ अर्थ अर्थ (अपार) समुद्र की तो थाह पाई जा सकती है लेकिन स्वभाव से ही कुटिल कामिनियों के दुश्चरित्र को थाह नहीं पाई जा सकती। अंगनाओं के दुश्चरित्र के सम्गन्ध में कहते हैं नितम्बिन्यः पति पुत्रं पितरं भ्रातरं क्षणात् । आरोपयन्त्यकार्येऽपि दुव ताः प्राणसंशये ॥५६॥ अथ दुश्चरित्र स्त्रियाँ क्षणभर में अपने पति, पुत्र, पिता और भाई के प्राण संकट में पड़ जाय, ऐसे अकार्य भी कर डालती हैं। व्याख्या 'स्त्री शब्द के बदले यहाँ नितम्बिनी शब्द का प्रयोग किया है, यह यौवन के उन्माद का सूचक है । ऐसी दुश्चरित्र नारियां तुच्छ कार्य या अकार्य का प्रसंग आने पर अपने पति, पुत्र, पिता या भाई तक को मारते देर नहीं लगाती। जैसे सूर्यकान्ता ने अपने पति परदेशी राजा से विषयभोगों से तृप्ति न होने पर उसको जहर दे कर मारत देर नहीं लगाई। कहा भी है - इन्द्रियदोषवश नचाई हुई पत्नी सूर्यकान्ता रानी ने जैसे परदेशी राजा को जहर दे कर मार दिया था, वैसे ही अपना मनोरथ पूर्ण न होने पर स्त्रियाँ पतिवध करने का पाप तक कर डालती है ! इसी प्रकार अपनी मनःकल्पित चाह (मुराद) पूरी नहीं होती, तब जैसे माता चूलनी ने पुत्र ब्रह्मदत्त के प्राण सकट में डाल दिये थे, लाक्षागृह बना कर ब्रह्मदत्त को उसमे निवास करा कर जला देने की उसकी क्रूर योजना थी, मगर वह सफल नहीं हुई। इसी तरह अन्य माताएं भी पुत्र को मारने हेतु क्रूर कृत्य कर बैठती हैं। जैसे जीवयशा ने प्रेरणा दे कर जरासंध को तथा अपनी रानी पद्मावती की प्रेरणा के कारण कोणिक ने कालीकुमार आदि भाइयों को अपने साथ जोड़ कर बहुत भयकर महायुद्ध का अकार्य किया था और सेना व अन्य सहायकों को मरण. शरण कर दिया था ।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy