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________________ १८४ योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश अभिमान में अधे हो कर मेरे रत्न की पत्थर की तरह अवहेलना की है। इस भयंकर अपराध के बदले तुम्हें मृत्युदण्ड की सजा दी जाती हैं।" अचल ता यह सुनते ही शर्म के मारे धरती मे गड़ गया। उसका चेहरा फीका पड़ गया। वह राजा के सामने गिड़गिड़ा कर प्राणों की भिक्षा मांगने लगा। देवदत्ता से भी माफी मांगते हुए कातर दृष्टि से उसकी ओर देखने लगा। देवदत्ता को उस पर दया आ गई। उसने राजा से उसकी मृत्युदण्ड की सजा मौकूफ करवा दी । राजा ने उसे आदेश देते हुए कहा-'सार्थवाह ! तेरी प्राणरक्षा तभी होगी, जब तू कहीं से ढूढ़ कर मूलदेव को वापिस यहाँ ले आएगा।" अचल ने राजा को बात शिरोधार्य करके वहां से नमन करके प्रस्थान किया। एक ओर देवदत्ता द्वारा किया गया अपमान उसके हृदय को कचोट रहा था, तो दूसरी ओर खोये हुए धन की तरह वह एक ही धुन में मूलदेव की खोज में आगे से आगे तेजी से बढ़ा चला जा रहा था । परन्तु चलते-चलते कई दिन हो गए, मगर मूलदेव का कहीं पान लगा । अचल सार्थवाह के मन में बड़ी बेचैनी रहने लगी। इसी हड़बड़ी में वह झटपट अपना सारा माल वाहनों में भरवा कर काफले के साथ पारसकुल देश की ओर रवाना हो गया। इधर राजा बना हुआ मूलदेव सोचने लगा -'देवदत्ता के बिना इस राज्यलक्ष्मी का उपभोग मुझे लवणरहित भोजन के समान फीका लग रहा है । अत उसने अपने चतुर दूत के साथ उज्जयिनी-नरेश जिनशत्रु राजा के पास देवदत्ता के लिए उपहारसहित सन्देश भिजवाया । "देवप्रदत्त राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते हुए मूलदेव ने जितशत्रु नृप को पत्र में यह संदेश कहलवाया है कि 'राजन् ! आप शायद मेरे वर्तमान नाम से परिचित होने के कारण भूल गए होंगे । मैं वही मूलदेव हूं। आप जानते है कि देवदत्ता के प्रति मेरे हृदय में कितना प्रेम है ? अतः अगर उसकी इच्छा हो तो आप उसे मेरे यहाँ भेज दें।" सन्देश सुनते ही उज्जियिनीनरेश ने दूत से कहा- "मुझ से उन्हें इतनी प्रार्थना करने की क्या आवश्यकता थी? हमारे और विक्रम राजा के तो अच्छे सम्बन्ध हैं ? मेरे में और उनमें कोई भेद नहीं है । मुझे पता ही नहीं चला कि ये विक्रम राजा भूतपूर्व मूलदेव हैं । नहीं तो, मैं स्वयं उनसे मिलने जाता, देवदत्ता को भी पहले ही भेज देता।" जितशत्र ने फौरन देवदत्ता को बुलवा कर कहा-'महाभागे ! तुम्हारे भाग्य खुल गये हैं। चिरकाल के बाद तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो गया है। मूलदेव देव के प्रभाव से वेणातट के राजा विक्रम बन गए है । तुम्हें बुलाने के लिए उन्होंने खासतौर से अपने दूत के साथ संदेश भिजवाया है । अतः तुम्हे अब अविलम्ब वहाँ जाना चाहिए।' यह खुशखबरी सुनते ही हर्ष से देवदत्ता का मुखमंडल खिल उठा । जितशत्रु की आज्ञा से वह वहाँ से अपना दलबल एवं आवश्यक सामग्री ले कर चल पड़ी और कुछ ही दिनों में वेणातट पहुंची। उसने प्रवेश से एक दिन पहले ही विक्रम राजा को अपने आने की खबर पहुंचा दी थी। इसलिए विक्रमराजा ने बहुत ही धूमधाम से गाजे-बाजे के साथ देवदत्ता को नगर प्रवेश कराया और फिर अपने चित्त के समान सत्कारपूर्वक विशाल राजमहल में उसे ले गया। अब देवदत्ता यहीं रहने लगी । देवदत्ता के साथ सुखोपभोग से मूलदंव के चांदी-से दिन और सौन-सी रातें कटने लगीं। इधर अर्थ और काम का धर्मयुक्त पालन करते हुए और जिनभक्ति करते हुए राजा सुखपूर्वक प्रजा पालन करते हुए राज्य करने लगा। इधर पारसकुल देश से खरीदने योग्य बहुत-सा माल ले कर जलपरिपूर्ण मेघ के समान अचल सार्थवाह वापिस लौट रहा था । संयोगवश एक दिन वह वेणातट नगर पहुंचा। नगर में उसने अपना पड़ाव डाला और एक थाल में बहुमूल्य हीरे, पन्ने, माणिक, मोती, मूंगा, मणि, रत्न आदि भर कर विक्रमराजा को मेंट देने के लिए लाया। राजा ने अचल को देखते ही पहचान लिया । चतुर पुरुष
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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