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________________ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश रात्रि व्यतीत होने पर सूर्य अपने तेज के साथ प्रगट होता है वैसे ही भूतपूर्व राजा उसी समय प्रगट हुआ। उसे प्रजाजनों ने राजगद्दी पर पुनः बिठा दिया था। पिटारी से निकल कर भागते हुए सर्प के समान दुष्ट दत्त को देखते ही भूतपूर्व राजा की क्रोधाग्नि भड़क उठी। उसने नरककुम्भी के समान चाण्डाल की कु भी (भट्टी) में दत्त को पकड़ कर डाला और नीचे से उसमें आग लगा दी। कुभी गर्म होने लगी तब रोते-चिल्लाते दत्त को शिकारी कुत्तों ने झपट कर फाड़ कर उसी तरह मार डाला, जैसे नरक में पग्माधार्मिक असर नारकों को फाड़ कर मारते हैं । इधर भूनपूर्व राजा ने कालकाचार्य जैसे सत्यवादी को कारागार से मुक्त किया । जिस तरह कालकाचार्य राजभय मे, किसी के आग्रह या मुलाहिजे में आ कर झूठ नहीं बोले, न झठी लल्लोचप्पो करे; बल्कि अपने सत्यमहाव्रत की प्रतिज्ञा पर दृढ रहे, हमी तरह बुद्धिमान पुरुप कदापि झूठ न बोले और अपने मन्यमहाव्रत को सुरक्षित रखे ।। असत्य बोलने से वसुराजा को दुर्गति चेदी देश में शुक्तिमती नदी के किनारे उस की क्रीडासनी की तरह शुक्तिमती नगरी बसी हुई थी। वहां अपने तेज से अद्भुत माणिक्य-रत्न के समान, पृथ्वी के मुकुट के तुल्य अभिचन्द्र गजा गज्य करता था। पाण्डुराजा के यहाँ जैसे सत्यवादी युधिष्ठिर पैदा हुए थे, वैसे ही राजा अभिचन्द्र के यहां सत्यवादी वस का जन्म हुआ। किशोर-अवस्था होते ही वमुराजकुमार को क्षीरकदम्बक गुरु के पास पढ़ने भेजा। उस समय क्षीरकदम्बक उपाध्याय के पास उनका पुत्र पर्वन, राजपुत्र वसु और विद्यार्थी नारद ये तीनों साथ-साथ अध्ययन करते थे। एक बार ये नीनों विद्यार्थी अध्ययन के परिश्रम के कारण थक कर मकान की छत पर मो गए। उस समय आकाश में उड़ कर जाते हए जंघाचारी मनियों ने इन्हें देख कर परस्पर कहा - "इन तीनों में से एक स्वर्ग में जायगा और दो नरक में जायेगे।" क्षीरकदम्बक उपाध्याय ने यह वार्तालाप सुना और वे गहरी चिन्ता में डूब गए। उन्हें खेद हआ कि 'मैं इनका अध्यापक और मेरे पढ़ाए हुए विद्यार्थी नरक में जाएं ! जंसी भवितव्यता ! फिर भी मुझं यह तो पता लगा लेना चाहिए कि इनमें से कौन म्वर्ग में जाएगा और कौन नरक में जाएंगे ?' अतः उन्होंने अपनी सूझबूझ से कुछ विद्या और युक्ति म लाक्षारस से परिपूर्ण आटे के तीन मुर्गे बनाए । एक दिन तीनों विद्यार्थियों को अपने पाम बुलाया और प्रत्येक को एक-एक मुर्गा देते हुए कहा – 'इमे ले जाओ और इसका वध ऐसी जगह ले जा कर करना, जहाँ कोई न देखता हो।' वसु और पर्वत दोनों अपने-अपने मुर्गे को ले कर नगरी के बाहर अलग-अलग दिशा में ऐसे एकान्त स्थान में पहुंचे, जहाँ मनुष्यों का आवागमन बिलकुल नहीं होता था । अत. उन्होंने यह सोच कर कि यहां कोई देखना नहीं है, अपने-अपने मुर्गे को खत्म कर दिया। महात्मा नारद अपने मुर्गे को ले कर एकान्त जनशन्य प्रदेश में पहुंचा, लेकिन वहां उसने इधर-उधर देख कर सोचा कि गुरुजी ने आशा दी है कि 'जहाँ कोई न देखे वहाँ इसे मार कर लाना।' यहां तो यह मुर्गा मुझे देख रहा है, मैं इसे देख रहा हूं; आकाणचारी पक्षी वगैरह देख रहे हैं, लोकपाल देखते हैं, और कोई नहीं देखना है तो भी ज्ञानी तो देखते ही होंगे, उनसे तो अधेरी से अंधेरी जगह में भी गुप्तरूप से की हुई कोई भी बात छिपी नहीं रहती । अतः मैं इस मुर्गे का वध किसी भी जगह नहीं कर मकना, तब फिर गुरुजी की आज्ञा का पालन कैसे होगा?" यों चिन्तनसागर में गोते लगाते-लगाते नारद को एकाएक ज्ञान का प्रकाश हुमा, हो न हो, सदा हिंसापराङ्मुख दयालु गुरुजी ने हमारी परीक्षा के लिए मुर्गा दिया है, मारना चाहते तो
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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