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________________ परिजनों द्वारा पैतृक धंधा न छोड़ने के आग्रह पर भी सुलस अपने धर्म पर दृढ़ घर आ कर अपने पिता को कडवे और तीखे पदार्थ खिलाए, तपे हए तांबे के रस के समान गर्मागर्म पानी पिलाया; विष्ठा ला कर उसका उसके मारे शरीर पर लेप किया, कांटों की शय्या पर उमे सुलाया, गधों और ऊँटों के कर्णकटु शब्द उसे सुनाए; राक्षस, भून वैताल और अस्थिपंजर मनुष्य सरोखे भयकर रूप बताए । इन और ऐसे ही अनेक प्रतिकुल विषयों के सेवन करने से कालसौकरिक को राहत मिली। उसने सुलस से कहा - 'बेटा ! बहुत असे के बाद आज स्वादिष्ट भोजन मिला है, ठंडा पानी पीया है, दी शय्या पर लेटा ह, सगन्धिन पदार्थ का लेप किया है, मधुर-मधुर शब्द मूने हैं और सुन्दर-सुन्दर रूप देखे हैं ! क्या बताऊं, आज तक ऐसा आनन्द नहीं आया, जितना आज आया है। अब तक तुमने मुझे इन सुखों में वंचिन क्यों रखा ?' पिता के विस्मयोत्पादक वचन सुन कर सुलम ने मन ही मन विचार किया- 'ओह ! इस जन्म में ही जब यह इतने पापों का फल प्रत्यक्ष भोगता दिखाई दे रहा है तो परलोक में नरक आदि में क्या हाल होगा ?' मुलम के यों सोचते-सोचते ही कालौकरिक ने सदा के लिए आँखें मूद ली । वह मर कर अप्रतिष्ठान नामक सप्तम नरक में पहुंचा। पिता की मरणोत्तरक्रिया करने के बाद स्वजनों ने सुलस से कहा- 'वत्म ! अब तू अपने उनके कारबार को संभाल ले, ताकि तेरे कारण हम सनाथ बने रहे।' इस पर सुलम ने उन्हें जबाव दिया-- 'मैं यह कार्य कदापि नही अपनाऊंगा। मैंने पिताजी को इसी जन्म में इन क्रूरकर्मों का कट फल पाते देखा है, अगले जन्मों में तो उन्हें और भी घोर कटुफल मिलेगा। जैसे मुझे अपने प्राण प्रिय लगते है, वैसे ही दूसरे प्राणियों को भी अपने-अपने प्राण प्यार है । अतः अपने प्राण टिकाने के लिए दूसरे जीवो के प्राणों का नाश करना बहुत ही बुग काम है। धिक्कार है, ऐसे प्राणिशत्र ओं और अ.य घातको को। हिसा का ऐमा कटुफल प्रत्यक्ष देख कर हिंसामय आजीविका को कोन करने को तैयार होगा ? जिस फल को खाना सीध मौत को न्याता देना हो, भला उम किम्पाकफल को खा कर जानबूझ कर कौन मृत्यु के मुख में जाना चाहेगा ? ये सुन कर वे स्वजन फिर भाग्रह करने लगे-."सुलस ! अगर प्राणिवध से पाप लगेगा तो तुझं अकेले को थोड़े ही लगेगा? जैसे पैतृक धन मभी पारिवारिक जन आपस में बांट लेते हैं, वैसे ही पाप का 'ल हम बांट लेंगे। तुम पहले सिर्फ एक मैंसे को मारो । उसके बाद और पशुओं को तो हम मार लेंगे। इससे तुम्हें बहुत ही थोड़ा-सा पाप लगेगा।" दूसरे के प्राणों को चोट पहुंचाने से कितना दुख होता है, इसका अनुभव करने के लिए सुलस ने तीखा कुल्हाड़ा अपनी जाघ पर मारा, जिससे वह गश खा कर तुरन गिर पड़ा। होश में आया तब करुण विलाप करता हुआ सुलम आर्तस्वर में चिल्लाया -"हाय बाप रे ! कुल्हाड़े की इस कठोर चोट में मैं घायल हो कर अभी तक बहुत बेचैन हूं इसकी पीड़ा से ! अरे बन्धुओ ! कोई मेरी इस वेदना को तो बांट लो, जिससे यह कम हो जाए। मेरा दुख ले कर कोई मुझे इस दु.ख से बचाओ ! हाय मैं मरा रे!" सुलस को पीड़ा से आर्तनाद करते देख कर पास में खड़े हुए बन्धुओं ने उससे कहा - "भाई ! क्या कोई किसी की पीड़ा ले सकता है, या किसी के दुःख में हाथ बंटा सकता है ?" इस पर सुलस ने उन्हें खरी खरी सुना दी-"बन्धुओ ! जब तुम सब लोग मिल कर मेरी इतनी-सी पीड़ा नहीं ले सकते तो नरक की पीड़ा में कैसे हिस्सा बंटा लोगे ? सारे कुटुम्ब के लिए पापकर्म करके घोर नरक की वेदना मुझे अकेले को ही परलोक में भोगनी पड़ेगी, आप सब कुटुम्बकबीले वाले यहीं रह जायेंगे । इसलिए चाहे वंश परम्परा से मेरे परिवार में हिंसाकर्म प्रचलित हो, लेकिन मैं ऐसी हिंसा कतई नहीं करूंगा। अगर किसी का पिता अंधा हो तो क्या पुत्र को भी अंधा बन जाना चाहिए ?" जिस समय सुलस पीड़ा से भरे ये उद्गार निकाल रहा था, ठीक उसी समय उससे सुखशान्ति के समाचार पूछने और उसकी संभाल लेने
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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