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________________ सेड़क अपनी करणी से ददुरांक देव बना १४६ गया ; जिसके प्रकाश में मेंढक ने जाना कि पूर्वजन्म में मुझे इमी दरवाजे पर द्वारपाल के तौर पर नियुक्त करके द्वारपाल जिन प्रभुवर को बन्दन करने गये थे, वे ही यहां पधारे हैं । अतः जैसे मनुष्य उन्हें वन्दन करने जाते हैं, वैसे मैं भी जाऊं, गगानदी का पानी तो सार्वजनिक है। इसका कोई एक मालिक नहीं होता।" यों सोच कर वह वहाँ से फुदकता हुआ मुझे वन्दन करने के लिए आ रहा था कि मार्ग में ही तुम्हारे घोड़े के पर के खुर से कुचल कर वह मेंढक वही मर गया। पर मरते समय उमके मन में मेरे प्रनि भक्ति और प्रीति थी, इस कारण दर्दुरांक देव के रूप में पैदा हुआ। 'भावना कियारहित हो तो भी फलदायिनी होती है।' देवेन्द्र ने एक दिन देवमभा में कहा था कि-भारतवर्ष में श्रेणिकनृप धावकों में श्रेष्ठ है और दृढ़ श्रद्धावान है ; इस कारण राजन् ! यह दद्रांक देव तुम्हारी परीक्षा लेने आया था। उसने गोशीपचन्दन मे मेरे चरणों की पूजा की। तुम में दृष्टिभ्रम पैदा करने के लिये इसने वक्रियशक्ति से कोढिये आदि का कप बना कर मवादलेपन मेरे चरणों पर करने का स्वांग दिखाया और चारों के लिए चार प्रकार की विभिन्न बातें कहीं। ___ इस पर श्रेणिक राजा ने भगवान् से पुनः प्रश्न किया--'भगवन ! जब आपश्री को छींक आई तो यह मर्वथा अमांगलिक शब्द और दूसरों को छींक आई तो मांगलिक और अमांगलिक शब्द क्यों बोला ?' उत्तर में भगवान् ने कहा 'मेरे लिए उमका संकेत यह था कि आप अभी तक संसार में क्यों बैठे हैं ? शीघ्र ही से मोक्ष में प्रयाण करें । इसलिए उसने मेरे लिए कहा था-'मर जाओ।' और हे नरमिह ! तुम्हें यहां पर सुख है, मरने के बाद तो तुम्हारी गति नरक है, जहाँ अगर दुःख है। इसी के संकेतम्वरूप कहा था - "जोते रहो।" इसके अनन्तर अभयकुमार के लिये कहा था, जोते रहो या मर जाओ। वह इस दृष्टि में कहा था कि जीयेगा तो धर्माचरण करेगा और मरेगा तो अनुत्तरविमान देवलोक में जायेगा।'' और सबसे अन्त में कालसोकरिक के लिए कहा था कि 'न जीओ और न मरो," 'वह इस अभिप्राय से था कि अगर वह जीवित रहेगा तो अनेक जीवों की हत्या करता रहेगा और मरेगा तो सातवीं नरक में जायेगा।" भगवान् के श्रीमुख से यह स्पष्टीकरण सुन कर सम्राट् श्रेणिक ने नमस्कार करके प्रार्थना की - प्रभो । आप सरीखे "कृपानाथ के होते हुए भी मुझे नरक में जाना पड़ेगा।" भगवान ने कहा-"तुमने पहले से ही नरक का आयुष्य बांध रखा है । इस कारण वहां नो अवश्य जाना पड़ेगा।" "पहले के बंधे हुए शुभ या अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है, इसमें कुछ भी रद्दोबदल करने में हम सब असमर्थ हैं । लेकिन प्रसन्नता की बात यह है कि तुम आगामी चौबीसी में पद्यनाम नाम के प्रथम तीर्थकर बनोगे। आः खेद मत करो।" श्रेणिक ने फिर पूछा"नाथ ! अंधे कुए में अंधे के समान घोर अन्धतम नरक से बचने का मेरे लिये क्या कोई उपाय भी है ?" भगवान ने उत्तर दिया-'हां ! दो उपाय हैं । एक तो यह कि अगर तुम्हारी दासी कपिला (ब्राह्मणी) के हाथ से सहर्ष साधु को दान दिला दो, दूसरा तुम कालसौकरिक (कसाई) से जीवों की हत्या करना छुड़वा दो तो नरक से तुम्हारा छुटकारा हो सकता है । अन्यथा अत्यन्त मुश्किल है। इस तरह का सम्यग् उपदेश हृदय में हार के समान धारण करके श्रेणिक राजा श्रीमहावीर प्रभु को वन्दना करके अपने महल की ओर चला । रास्ते में राजा के सम्यक्त्व की परीक्षा करने के लिये दर्दुरांक देव ने एक मछुए की तरह जाल कंधे पर डालते हुए साधु का स्वांग रचा और खुद को ऐसा अकार्य करने वाला साधु बताया। उसे देख कर श्रेणिक ने शासन (धर्म) की बदनामी न हो इस दृष्टि से उसे समझा कर अकार्य से रोका और आगे बढ़ा । उस देव ने फिर गभिणी साध्वी का रूप बना कर अपने को साध्वी बताई, तब श्रेणिक राजा
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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