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________________ पैटू और धनलोभी सेडुक ब्राह्मण की दुर्दशा १४७ घर से भोजन कराया जाय, और दक्षिणा में एक स्वर्णमुद्रा दी जाय।' यों सोच कर उसने अपने पति को यह बात समझा दी। ब्राह्मण ने भी चक्रवर्ती से उसी तरह की मांग की। चक्रवर्ती ने ब्राह्मण की मांग स्वीकार की। समुद्र के मिल जाने पर भी घड़ा अपनी योग्यतानुसार ही जल लेता है। इसी तरह ब्राह्मण करता था। अब ब्राह्मण को प्रतिदिन भोजन, दक्षिणा और साथ-साथ आदर भी मिलता था । राज-प्रसाद मनुष्य के गौरव को बढ़ा देता है। उस ब्राह्मण को भी राजमान्य समझ कर लोग आमंत्रण देने लगे। जिस पर राजा प्रसन्न हो, उसकी सेवा कौन नहीं करता ? अब ब्राह्मण को अनेक घरों मे न्योता मिलता था, इसलिये वह पेटू बन कर पहले खाया हुआ वमन कर देता और फिर पुनः आमन्त्रणप्राप्न घरों में भोजन करने जाता। क्योंकि जितने घरों में वह भोजन करता उतने ही घरों से उसे दक्षिणा प्राप्त होती। धिक्कार है, ब्राह्मण के ऐसे लोभ को। बार-बार दक्षिणा मिलने के कारण ब्राह्मण प्रचुर धनवान बन गया। जिस प्रकार वटवृक्ष मूलशाखाओं एवं प्रशाखाओं से अधिकाधिक विस्तृत होता जाता है, वैसे ही सेडुक भी पुत्रों, और पौत्रों से विस्तृत परिवार वाला हो गया। साथ ही प्रतिदिन अजीर्ण, वमन और बाए हुए का शरीर में रस न बनने के कारण ब्राह्मण को चर्मरोग हो गया। जिससे वह ऐमा लगता था मानो पीतल के पेड़ पर लाख लगी हो। फिर भी अग्नि के समान अतृप्त सेडुक राजा के यहां जा कर उसी तरह भोजन करता और दक्षिणा लेता था। इस तरह धीरेधीरे सेडुक को कोढ़ हो गया, उसके हाथ, पैर, नाक इत्यादि सड़ गये । एक दिन मन्त्री ने राजा से निवेदन किया-'देव ! इस ब्राह्मण को कोढ़ हो गया है और यह चेगे रोग है, इमलिये इसे यहाँ भोजन कराना ठीक नहीं है। इसके बजाय इसके निरोगी पुत्रों में से किमी को करवा दिया जाय । खडित प्रतिमा के स्थान पर दूसरी प्रतिमा स्थापित की जाती है।' राजा ने मन्त्री की बात स्वीकार की। सेडुक के स्थान पर उसके पुत्र को स्थानापन्न किया । अब सेडुक घर पर ही रहने लगा। मधुमक्खियों से घिरे हुए छत्तों के समान उसके चारों ओर मक्खियां भिनभिनाती रहतीं । अतः पुत्रो ने मिल कर घर के बाहर एक झोंपड़ी बनवा दी और उसी में सेडुक को रखा । अब न तो कोई उसकी बात मानता और सुनता था, और न कोई उसके कहे अनुसार काम करता था। इतना ही नहीं, कुत्तं की तरह लकड़ी के पात्र में उसे भोजन दे दिया जाता था। पुत्रवधुएं भी उससे घृणा करती थीं । भोजन देते ममय मुह फेर लेती थीं और नाक-मुह सिकोड़ती थीं। यह देख कर क्षुद्राशय सेडुक ने विचार किया -इन पुत्रों को मैंने ही तो धनवान बनाया है। लेकिन आज मेरी अवज्ञा करके इन्होंने मुझे वैसे ही छोड़ दिया है, जैसे समुद्र पार करने के बाद यात्री नौका को छोड़ देता है। इतना ही नहीं, मुझे वचन से भी संतुष्ट नहीं करते । उल्टे ये मुझे कोढ़िया, क्रोधी, असंतोषी, अयोग्य आदि अनुचित शब्द कह कर चिढ़ाते व खिजाते हैं । जिस तरह ये पुत्र मुझ से घृणा करते हैं, उसी तरह ये भी घृणापात्र बन जाय, ऐसा कोई उपाय करना चाहिए । सहसा उसे एक युक्ति सूझी और मन ही मन प्रसन्न हो कर उसने ऐसा विचार कर पुत्रों को अपने पास बुला कर कहा 'पुत्रो ! अब मैं इस जीवन से ऊब गया हूं । अतः अपना कुलाचार ऐसा है कि मरने की अभिलाषा वाले व्यक्ति को उसके परिवार वाले एक मंत्रित पशु ला कर दें । अतः तुम मेरे लिये एक पशु ला कर दो। यह सुन कर सबने इस बात का समर्थन किया और उन सब पशुसम बुद्धि वाले पुत्रों ने पिता को एक पशु ला कर सौंप दिया। सेडुक प्रसन्न होता हुमा अपने अंगों से बहते हुए मवाद को हाथ से ले लेकर पशु के चारे में मिलाता और उसे खिलाता । मवाद मिला हुआ चारा खाने से वह पशु भी कोढ़िया हो गया । अतः सेडुक ने वह पशु बलि (वध) के लिये अपने पुत्रों को दे दिया। पिता के आशय को न समझ कर उन भोलेभाले पुत्रों ने एक दिन उस पशु को
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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