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________________ सुलस के द्वारा कुलपरम्परागत हिंसा का त्याग १४५ अपि वंशक्रमायातां यस्तु हिंसा परित्यजेत् । स श्रेष्ठः सुलस इव कालसौकरिकात्मजः ॥३०॥ अर्थ वंशपरम्परा से प्रचलित हिंसा का भी जो त्याग कर देता है। वह कालसौकरिक (कसाई) के पुत्र सुलस के समान श्रेष्ठ पुरुष कहलाने लगता है। व्याख्या वंश अथवा कुल की परम्परा से चली आई हुई हिंसा का जो त्याग कर देता है, वह कालसौकरिक (कसाई) के पुत्र सुलस की तरह, श्रेष्ठ एवं प्रशंसनीय बन जाता है। सुलस सद्गति के मार्ग को भली-भांति जानता था। उसे स्वयं मरना मंजर था, परन्तु दूसरों को मारना तो दूर रहा, मन से भी बह पीड़ा नहीं पहुंचाना चाहता था। सुलस की सम्प्रदायगम्य कथा इस प्रकार से है : कालसौकरिक (कसाई)-पुत्र सुलस का जीवन-परिवर्तन उन दिनों मगधदेश में राजगृह बड़ा ऋद्धिसम्पन्न नगर था। वहां श्री श्रमण भगवान् महावीर के चरणकमलों का भ्रमर एवं परमभक्त श्रेणिक राजा राज्य करता था । कृष्णपिता वासुदेव के जैसे देवकी और रोहिणी रानियां थीं, वैसे ही उसके शीलाभूपणसम्पन्न नन्दा और चेलणा नाम की दो प्रियतमाएं थीं। नन्दारानी के कुमुद को आनन्द देने वाले चन्द्र के समान विश्व का आनन्ददायक चन्द्र, एवं कुलाभषणरूप एक पुत्र था, जिसका नाम था अभयकुमार । राजा ने उसका उत्कृष्ट बुद्धि-कौशल जान कर उसे योग्य सर्वाधिकार प्रदान कर दिये थे। वास्तव में गण ही गौरव का पात्र बनता है। एक बार भगवान महावीर स्वामी राजगृह में पधारे। 'जंगमकल्पवृक्ष' रूप स्वामी पधारे हैं, यह जान कर अपने को कृतार्थ मानता और हर्षित होता हुआ राजा श्रेणिक भगवान् के दर्शनार्थ पहुंचा । वहां दानव, मानव आदि से भरी हुई धर्मसभा (समवसरण) में राजा अपने योग्य स्थान पर बैठ गया। जगद्गुरु महावीर पापनाशिनी धर्मदेशना देने लगे। ठीक उसी समय एक कोढ़िया, जिसके शरीर से मवाद निकल कर बह रही थी, उस समवसरण में आया और प्रभु को नमस्कार कर उनके निकट इस प्रकार बैठ गया जैसे कोई पागल कुत्ता हो और भगवान के दोनों चरणकमलों पर बेधड़क हो कर अपने मवाद का लेप करने लगा. मानो चंदनरस का लेप कर रहा हो। उसे देख कर राजा श्रेणिक मन ही मन कुढ़ता हुमा-सा सोचने लगा-जगद्गुरु की इस प्रकार आशातना करने वाले इस पापी को यहां से खड़ा होते ही मरवा डाला जाय। उस समय भगवान को छीक आई, तो कोढ़िये ने कहा-'मर जाओ !' इसके बाद श्रेणिक को छींक आई तो उसने कहा-'जीओ' । फिर अभयकुमार को छींक आई तब उसने कहा-'तुम जीते रहो या मर जाओ।' और अन्त में जब कालसौकरिक को छींक आई तो उसने कहा-'तुम जोजो भी मत व मरो भी मत ।' इस पर प्रभु के लिए 'तुम मर जाओ' ऐसे अप्रिय वचन कहने से क्रुद्ध हुए राजा ने अपने सैनिक को आज्ञा दी कि इस स्थान से खड़ा होते ही कोढ़िये को पकड़ लेना। देशना पूर्ण होने पर कोढ़िया भगवान को नमस्कार करके खड़ा हुआ । अतः श्रेणिक के १६
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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