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________________ ब्राह्मण द्वारा आंखें फोड़े जाने से ब्रह्मदत का समस्त ब्राह्मणों पर कोप १४३ है। यह भोजन बहुत देर में हजम होता है और बहुत ही उन्मादक है।" तब उसने कहा-'मालुम होता है, आप एक ब्राह्मण को अन्नदान देने में भी कृपण हैं । धिक्कार है आपको ।' तब चक्रवर्ती ने परिवारसहित उस ब्राह्मण को अपना भोजन करवाया। उसके प्रभाव से रात को ब्राह्मण के मन में सहस्रशाखी कामोन्मादवृक्ष उत्कृष्टरूप में प्रगट हुआ। जिसके कारण वह रात भर माता, बहन, पुत्री, पुत्रवधू आदि का भी भेद न करके अंदर ही अंदर पशु के समान कामक्रीड़ा में प्रवृत्त रहा। रात बीतते ही ब्राह्मण और उसके घर के लोग शमं के मारे एक दूसरे को मुह नहीं बता सके । ब्राह्मण ने यह विचार किया कि 'दुष्ट राजा ने मुझे और मेरे परिवार को विडम्बना मे डाल दिया।" अतः क्रुद्ध हो कर वह नगर से बाहर चला गया । जंगल में घूमते-घूमते एक जगह उसने दूर से ही गुलेल में कंकड़ लगा कर फेंकते हुए और पीपल के पत्तों को छेदते हुए एक गड़रिये को देखा । तुरंत उसे सूझा-"बम, इस दुष्ट राजा से वैर का बदला लेने का यही उपाय ठीक रहेगा।' ब्राह्मण ने उसे बहुत कीमती सामान तथा धन दे कर सत्कार करके कहा -- "देखो अब मेरा एक काम तुम्हें अवश्य करना होगा। इस राजमार्ग से जो भी आदमी छत्रचामर महित हाथी पर बैठ कर आए, उसकी दोनो आँख गुलेल से फोड़ देना।" गड़रिये ने ब्राह्मण की बात मंज़र की । क्योंकि पशु के समान पशुपालक विचारपूर्वक कार्य नहीं करते। गड़रिया इसी ताक में बैठा था । इतने में ही राजा की सवारी आई । गड़रिये ने दो दीवारों के बीच खड़े हो कर निशाना बांधा और मनसनाती हुई दो गोलियां फेंकी, जिनसे राजा की दोनों आंखें फूट गई । देवाज्ञा सचमुच अनुल्लंघनीय होती है । बाज पक्षी जैसे कौए को पकड़ लेता है, वैसे ही राजा के सिपाहियों ने तुरन्त उस गड़रिये को पकड़ लिया। ख़ब पीटे जाने पर उसने इम अप्रिय-कार्यप्रेरक ब्राह्मण का नाम बताया। यह सुनते ही राजा ने क्रुद्ध हो कर कहा - "धिक्कार है, ब्राह्मणजाति को ! ये पापी जिस बर्तन में भोजन करते हैं, उसे ही फोड़ने है। इससे तो कुत्ता अच्छा, जो कुछ देने पर दाता के प्रति कृतज्ञ हो कर स्वामिभक्ति दिखाता है । ऐमे कृतघ्न ब्राह्मणों को देना कदापि उचित नही । दूसरों को ठगने वाल, कर, हिंस्रपशु, मांसाहारी तथा ब्राह्मणों के जनकों को ही सर्वप्रथम सजा देनी चाहिए।' यों कह कर अत्यन्त ऋद्ध राजा ने उस ब्राह्मण को उसके पुत्र, मित्र और बन्धु के सहित मुट्ठी में आए हुए मच्छर की तरह मरवा डाला । उसके पश्चात् आंखों से अंधे और क्रोधवश हृदय से अंधे उस चक्रवर्ती ने पुराहित आदि सभी निर्दोष ब्राह्मणों को भी खत्म कर दिया। फिर प्रधान को आज्ञा दी.-'घायल हुए ब्राह्मणों की आंखे थाल में भर कर मेरे सामने वह थाल हाजिर करो।' राजा के रौद्र परिणाम (अध्यवसाय) जान कर बुद्धिमान मंत्री लसोड़ के फलों से थाल भर कर राजा के सामने प्रस्तुत कर देता था। यह थाल ब्राह्मणों की आंखों से पूर्ण भरा हुआ है ।' यों कहते हो राजा उस थाल में रखे तथाकथित नेत्रों पर टूट पड़ता और दोनों हाथों से बार-बार उन्हें मसलता था। अब ब्रह्मदत्त को स्त्रीरत्न पुष्पवती के स्पर्श में इतना आनन्द नहीं आता था, जितना कि उस पाल में रखे हुए तथाकथित नेत्रों के समर्श में आता था। शराबी जैसे शराब का प्याला नहीं छोड़ता, वैसे ही ब्रह्मदत्त दुर्गति के कारणभूत उस थाल को कदापि अपने सामने से दूर नही छोड़ता था । अन्षा ब्रह्मदत्त प्रतिदिन श्लेष्म की तरह चिकने और नेत्र जितने बड़े लसोड़ के फलों को ब्राह्मणों की आंख समझ कर क्रूरतापूर्वक मसलता था, मानो फलाभिमुख पापरूपी वृक्ष के पौधे तैयार कर रहा हो । इस क्रूरकार्य को नित्य जारी रखने के कारण उसके रौद्रध्यान के परिणामों में दिनानुदिन वृद्धि होने लगी। 'शुभ या अशुभ जो कोई भी कर्मबन्ध हो, मगर वह बड़े के बड़ा (विशाल) ही होता हैं।' इस न्याय के पापरूपी कीचड़ में फंसे हुए सूबर के समान ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को रौद्रध्यान-परम्परा से
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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