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________________ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश ब्रह्मदत्त के चरणकमलों में बा कर हस की तरह गिरा। कुमार के गले से गला लगा कर वरधनु मुक्तकंठ से रोने लगा । सच है. प्रिय व्यक्ति के मिलने से सारा दुःख अंबर से उमर कर बाहर आ जाता है । कुमार ने उसे अमृत की धूट के समान अतिमधुर वार्तालाप से आश्वासन दे कर अब तक का सारा वृत्तान्त आद्यो पान्त सनाने को कहा । वरधन ने कहना प्रारम्भ किया-"स्वामिन् ! उस समय बड़ के पेड़ के नीचे आपको छोड़ कर मैं आपके लिए पानी की तलाश में जा रहा था। कुछ आगे बढ़ा ही था कि मैंने अमृतकुण्ड के समान एक सरोवर देखा । मैं आपके लिए कर्मालनी-पत्र के सपुट (दोने) में सरोवर से पानी भर कर ले कर आ ही रहा था कि अचानक यमदूत के समान वस्तर पहने हुए कुछ सुभटों ने आ कर मुझे घेर लिया और पूछने लगे ---'वरधनु ! सच-मच बनाओ ब्रह्मदत्त कहाँ है ?' मैंने उनका आशय भांप कर कहा-"मुझे पता नहीं है ।" यह कहते ही वे मुझे चोर की भांति बेखटके धड़ाधड़ मारने लगे । मैंने बात बनाते हुए कहा-'ब्रह्मदत्त को तो कभी का सिंह मार कर खा गया है। उन्होंने कहा -- 'तो सका स्थान बताओ कि सिंह ने उसे कहाँ माग है ?' तब मैं इधर-उधर घूम कर आपको ढू ढने के बहाने से आपके सामने आया और आपको वहां से भागने का संकेत किया। उन्हें बताया कि सिंह ने उसे यहीं मारा पा। फिर मैंने परिव्राजक द्वारा दी हुई जादूई गोली मुंह में रखी, जिसके प्रभाव से मैं बिल्कुल निश्चेष्ट और मूच्छित हो गया । मुझे मरा हुआ समझ कर उन्होंने वही छोड़ दिया। उनके चले जाने के काफी देर बाद मैंने मुंह में से वह गोली बाहर निकाली और खाये हुए निधान को ढ ढने की तरह आपको ढूंढने चल पड़ा। कई गांवों में भटकने के बाद मैंने साक्षात् मूर्तिमान तप:पुज-से एक परिवाजक महात्मा के दर्शन किये । उन्हें नमस्कार करके मैं बंठा ही था कि उन्होंने मुझ से पूछा - 'वरधनु ! मैं धनु का मित्र बसुभान हूं। यह तो बता कि ब्रह्मदत्त इस समय इस पृथ्वी पर कहां रहना है ?" मैंने भी उन पर विश्वास करके उन्हें सारी बातें ज्यों की त्यों कह दीं। मेरी दुख कथा सुन कर धुप से म्लान हुए मुख की तरह उदास-मुद्रा मे उन्होंने मुझे बताया कि-जब लाक्षागृह जल कर खाक हो गया था, तब दीर्घराजा ने सुबह निरीक्षण कराया तो वहां एक शव मिला । परन्तु बाकी के दो शव नही मिले । मगर वहाँ पर सुरग जरूर मिली ; जिसके अन्त में घोड़ के पैरों की निशानी थी। हो न हो वे धनुमंत्री की सूझबूझ से भाग गये हैं ; यह जान कर दीर्घराजा ने मन्त्री पर कोपायमान हो कर आज्ञा दी- 'सूर्य की किरणों के समान अबाधति से कुच करने वाली सेना प्रत्येक दिशा में भेजो, ताकि वह उन दोनो को बांध कर यहां ले आए।' धनुमंत्री वहां से चुपके से भागने में सफल हो गयं । उनके जाने के बाद तुम्हारी माता को दीघंराजा ने नरक के समान चांडालों के मोहल्ले में एक घर में डाल दिया है। जैसे एक फुसी के बाद दूसरी फुसी से पीड़ा बढ़ जाती है, वैसे ही उम वान को सुन कर मेरे मन में दु.ख पर दुःख बढ़ जाने से मैं चिन्तातुर हो कर वहां से काम्पिल्यपुर की ओर गया। मैंने नकली कापालिक साधु का वेष बनाया और चांडालों के मोहल्ले में घुसा । वहाँ खरगोश के भगान घर-घर में पृम कर अपनी माता की तलाश करने लगा । लोगों ने मुझे उम मोहल्ले में रोज फेरी लगाने का कारण पूछा तो मैंने कहा-'मेरी मातगी विद्या की साधना ही कुछ इसी प्रकार की है कि इसमें मुझे घर-घर प्रवेश करना पड़ता है । इस प्रकार भ्रमण करते हुए वहां एक विश्वसनीय कोतवाल के साथ मेरी दोस्ती हो गई । 'माया से कौन-सा काम नहीं बनता?' एक दिन उस विश्वस्त कोतवाल के द्वारा मैंने माता को कहलवाया कि "तुम्हारे पुत्र का मित्र महाव्रती कौण्डिन्य तापस आपको वंदन करता है। मेरी माता ममझ गई। पुत्रभिलन के लिए बातुर माता ने मिलने के लिए मुझ से कहलवाया । अतः दूसरे दिन मैं स्वयं वहां गया और माता को गुटिका-महित एक बीजोरा दिया, उमे ग्वाते ही वह जड़-सी निश्चेतन बन गई । उसकी ऐसी हालत देख
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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