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________________ ब्रह्मदत्त का विवाह और लाक्षागृह के षड्यन्त्र से मुक्त १२६ जान कर अपनी पुत्री के बदले हंसनी के स्थान में बगुली की तरह एक दासीपुत्री को रत्नमणि-जटित आभूषणों से सुसज्जित करके भेजा । उस दासीपुत्री ने पुष्पचूल की पुत्री के रूप में नगर में प्रवेश किया। सच है, भोले-भाले लोग पीतल को देख कर उसे सोना समन्म लेते हैं। मंगलमय मधुगीतों और वाचों से आकाशतल गूंज उठा। शहनाइयां बज उठीं। बहुत ही धूमधाम से हर्षपूर्वक उस कन्या के साथ ब्रह्मदत्त का विवाह हो गया। अन्य सभी परिवार को विदा करके चूलनी ने नववधू-सहित कुमार को रात्रि के प्रारम्भ होते ही लाक्षागृह में भेज दिया। अन्य परिवार सहित नववधू, कुमार और उसकी छाया के समान वरषनु साथ-साथ वहाँ पर आए । ब्रह्मदत्तकुमार को मन्त्रीपुत्र के साथ बातें करते. करते आधीरात बीत चुकी। 'महात्माबों की मांगों में ऐसे समय नी कहाँ ?' चूलनी ने विश्वस्त सेवकों को लाक्षागृह जलाने की आज्ञा दी। सेवकों ने उस लाख के बने महल में आग लगा दी। आग लगते ही धू-ध करके कुछ ही क्षणों में वासगह में अग्नि-ज्वालाएँ फैल गई। धीरे-धीरे उसका काला धुआ चारों ओर से सारे आकाशमण्डल में इस तरह फैल गया, मानो चूलनी के चिरकालीन दुष्कर्म की अपकीति फैल रही हो। आज सप्तजिह्वा वाली भूखी अग्नि अपनी लपलपाती हुई ज्वालाओं से करोड़ों जिह्वा वाली सर्वभक्षिणी बन गई । जब ब्रह्मदत्त ने मन्त्रीपुत्र से पूछा-'यह क्या है ?' तो इसके उत्तर में चूलनी के दुष्ट आचरणों का सारा कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया। और अन्त में इससे बचने का उपाय बताते हुए कहा-"हाथी की सूंड से सुन्दरी को बचा कर निकालने की तरह मापको यहां से बाहर निकालने के लिए दानशाला तक एक सुरंग मेरे पिताजी ने बनवाई है। अतः यहीं पर जोर से लात मार कर इसका दरवाजा खोलो और योगी जैसे योगबल से छिद्र में प्रवेश कर जाता है, उसी प्रकार सुरंग में प्रवेश करो।" मिट्टी के सकोरे के-से बनाए हुए सम्पुट-बाधयन्त्रों के समान दरवाजे पर जोर से कुमार के पैर मारते ही सुरंग का दरवाजा मनझना कर खुल गया। अपने मित्र के साथ ब्रह्मदत्तकुमार सुरंग के रास्ते से वैसे ही निकल गया, जैसे रत्न के छेद में से धागा निकल जाता है । सुरंग पार करते ही बाहर धनुमन्त्री द्वारा जीन कसे हुए सुसज्जित दो घोड़े तैयार खड़े थे। उन पर राजकुमार और मन्त्रीपुत्र दोनों आरूढ़ हुए, मानो दो सूर्यपुत्र हों। दोनों घोडे पंचमधारागति से इतनी तेजी से दौड़ रहे थे कि उनके लिए पचास योजन एक कोस के समान था। किन्तु अफसोस ! वे दोनों घोड़े बीच में ही थक कर मर गये। अतः वहां से आगे वे दोनों पैदल चल कर अपने प्राणों की रक्षा करते हुए मुश्किल से कोष्ठकगांव के निकट पहुंचे। तभी ब्रह्मदत्त ने अपने मित्रवर धनु से कहा-'मित्र ! क्या अब भी परस्पर प्रतिस्पर्धा करनी है ? मुझे तो कड़ाके की भूख और तीव्र प्यास लगी है । इनके मारे मेरे प्राण निकले जा रहे है ।' मंत्रीपुत्र ने राजकुमार के कान में कुछ कहा और फिर-क्षणभर तुम यहां रुक जाओ।' यों कह कर वह आगे चल पड़ा । राजकुमार का मस्तक मुंडाने के हेतु मत्रीपुत्र गांव से वह एक नाई को बुला लाया । मन्त्रीपुत्र के कहने से ब्रह्मदत्त ने सिर्फ एक चोटी रखवा कर बाकी के सारे बाल कटवा दिये। फिर उसने भगवे रंग के पवित्र वस्त्र धारण कर लिये। उस समय वह ऐसा लगता था मानो सन्ध्याकालीन रंगबिरंगे बादलों में सूर्य छिपा हो। मंत्रीपुत्र बरधनु ने उसके गले में एकब्रह्मसूत्र हाल दिया वह ब्रह्मराजा का पुत्र यथार्थ रूप में अपने ब्रह्मपुत्र नाम को सार्थक कर रहा था। वर्षाऋतु मे मेघ से जैसे सूर्य ढक जाता है, वैसे ही मन्त्रीपुत्र ने ब्रह्मदत्त के श्रीवत्सयुक्त वक्षःस्थल को उत्तरीय पट से ढक १७
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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