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________________ १२४ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश में पहुंचे। वहां पहुंच कर दोनों भाइयों ने विचार किया-'सर्प द्वारा सूघा हुमा दूध जैसे दूषित हो जाता है, वैसे ही खराब (चांडाल) जाति से दूषित होने के कारण अब हमारे कला-कौशल, रूप आदि को धिक्कार है। हमारे गुणों से उपकृत हो कर हमारी का करना तो दूर रहा; उल्टे हम पर कहर बरसा कर हमारा अपकार किया जाता है ।' अत. ऐसी कायरता की शान्ति धारण करने से तो विषमता उत्पन्न होती है । कला, लावण्य और रूप ये सब शरीर के साथ जुड़े हुए हैं और जब शरीर ही अनर्थ का घर हो गया है, तब उसे तिनके की तरह झटपट छोड़ देना चाहिए। यों निश्चय करके वे दोनों प्राण-त्याग करने को उद्यत हुए। उस समय वे दोनो दक्षिण-दिशा में उसी तरह चले जा रहे थे, मानो मृत्यु से साक्षात्कार करने जा रहे हो। आगे चलते-चलते उन्होंने एक पर्वत देखा। उ नीचे देखा तो उन्हें हाथी सूअर के बच्चे जितना नजर आता था। अतः उन्होंने इसी पर्वत से कूद कर आस्महत्या करने की इच्छा से भृगुपात करने की ठानी। किन्तु पर्वत पर चढ़ते समय जंगम गुणपर्वत सरीखे एक महामुनि मिले। पर्वत के शिखर पर वर्षाऋतु के बादलों के समान मुनि को देख कर वे दोनों शोक-संताप से मुक्त हुए। उनकी आखों से हर्षाश्र, उमड़ पड़े, मानों अथ त्याग के बहाने वे पूर्वदुःखों का त्याग कर रहे थे। वे दोनों उन मुनिवर के चरण-कमलों में ऐसे गिर पड़े, जैसे भौंरा कमल पर गिरता है। मुनि ने ध्यान पूर्ण करके उनसे पूछा-"वत्स ! तुम कौन हो ? यहां कैसे और क्यों आये हो ?" उन्होंने आद्योपान्त अपनी सारी रामकहानी सुनाई। मुनि ने उनसे कहा-'वत्स, भृगुपात करने से शरीर का विनाश जरूर किया जा सकता है ; मगर सैकड़ों जन्मों में उपाजित अशुभकर्मों का विनाश नहीं। यदि तुम्हें इस शरीर का ही त्याग करना है तो फिर शरीर का फल प्राप्त करो, और मोक्ष एवं स्वर्ग आदि के महान कारणरूप तप की आराधना करो। वही तुम्हें शारीरिक और मानसिक सभी दुःखों से मुक्त कर सकेगा।" इस प्रकार उपदेशामृत के पान से उन दोनों निर्मलहृदय युवकों ने उक्त मुनिवर के पास साधुधर्म अंगीकार किया। मुनि बन कर शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन करके वे क्रमश: गीतार्थ हुए । 'चतुरपुरुष जिस बात को आदरपूर्वक अपना लेते हैं, उससे क्या नहीं प्राप्त कर सकते।' षष्ट-अष्ठम, (बेला-तेला) आदि अत्यंत कठोर तपस्याएं करके उन्होंने पूर्वकर्मों को क्षीण करने के साथ-साथ शरीर को भी कृश कर डाला । एक गांव से दूसरे गांव और एक नगर से दूसरे नगर में विचरण करते हुए एक बार वे दोनों हस्तिनापुर में पधारे। वहां वे दोनों रुचिर नाम के उद्यान में निवास कर दुष्कर तप की आराधना करने लगे। "शान्तचित्त व्यक्ति के लिए भोगभूमि भी तपोभूमि बन जाती है।" एक दिन संभूतिमुनि मासक्षपण (मासिक तप) के पारणे के हेतु भिक्षाटन करते हुए राजमार्ग से हो कर जा रहे थे, कि अचानक नमुचिमन्त्री ने उन्हें देखा। और देखते ही पहिचान कर सोचा-'यह तो वही मातंगपुत्र है। शायद किसी के सामने मेरी पोल न खोल दे । 'पापी हमेशा शंकाशील होता है। यह मेरी गुप्त बात यहां किसी के मामने प्रगट न कर दे, उससे पहले ही मैं इसे नगर से बाहर निकाल दूं। यों विचार करके मंत्री ने एक सैनिक को चुपचाप बुला कर यह कार्य सौंपा। जीवनदान देने वाले अपने पूर्वउपकारी पर भी दुष्ट नमुचि कहर बरसाने लगा। सच है, दुर्जन पर किया गया उपकार सर्प को दूध पिलाने के समान ही है । अनाज के दानों पर जैसे डंडे पड़ते जाते हैं, वैसे संभूति मुनि पर तड़ातड़ डंडे पड़ने लगे । अतः मुनि भिक्षा लिए बिना ही उस स्थान से बहुत दूर आगे निकल गये । यद्यपि वे नगर के बाहर विकल गये। फिर भी पीटने वाले उन्हें पीटते ही रहे। मुनि जब आश्वस्त हो कर एक जगह बैठे तो उनके मुंह से बादल के रंग का-सा धुंआ निकला, जो चारों और फैलता हुआ ऐसा लगता
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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