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________________ ११२ योगशास्त्र: द्वितीय प्रकाश हैं । आदि शब्द से शरीर के नीचे का भाग खराब हो, अथवा दूभरे अग अनेक प्रकार के रोग से ग्रस्त हों, काया के ऊपर के भाग में-अंगविकलता हो, तो इन सब की हिंसा का फल समझना चाहिए । ऐसा देख कर बुद्धिमान पुरुष शास्त्रबल से यह निश्चित जान कर कि यह बेचारा हिंसा के फल भोग रहा है, हिंसा का त्याग करता है । त्याग किसका और किस प्रकार का करे ? इसके उत्तर में बताया गया है कि निरपराधी द्वीन्द्रियादि जीवों की संकल्पपूर्वक हिंमा न करने का नियम करे।" अपराधी जीवों के लिये ऐसा नियम नहीं बताया है। स-जीवों की हिंसा का त्याग कह कर यहां सूचित किया गया है कि गृहस्थ एकेन्द्रिय-विषयक हिंसा का त्याग करने में असमर्थ है और संकल्पत इसलिये कहा है कि इरादे से हिंसा छोड़े। खेती आदि आरम्भजनक प्रवृत्ति से लाचारी में संकल्प यानी इरादे के बिना जो हिंसा हो जाती, है वह श्रावक के लिये वजित नहीं है। मतलब यह है कि उस जीवों की संकल्पजा हिंसा का त्याग करे। एकन्द्रिय स्थावर जीवों की हिंसा का जहां तक हो सके त्याग करना चाहिए, जहा त्याग अशक्य हो, वहाँ हमेशा यतना करनी चाहिए । इस सम्बन्ध में कुछ श्लोक प्रस्तुत है जिनका अर्थ हम प्रकार है जो आत्मा और शरीर को सर्वथा पृथक मानते हैं, उनके मन में शरीर का विनाश होने पर भी आमा का विनाश नहीं होना व नजनित हिमा नहीं लगती। इसी प्रकार आ-मा और शरीर को मथा आ..न्न मानने पर शरीर के नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है। अन उनकी दृष्टि में परलोक का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिये अनेकान्तहष्टि से आत्मा को गरीर से भिन्न भी माना जाता है, अभिन्न भी। इस दृष्टि से शरीर को क्षति पहुंचाने पर या नष्ट करने पर जो पीड़ा उक्त शरीर. धारी को होती है, उसी के कारण वहां वधकता को हिसा लगनी है । इसलिए जिस हिंमा से मरने वाले जीव को दुख हो. उसके मन को क्लेग हो, उमे नई योनि में उत्पन्न होना पड़े, उमकी पूर्वपर्याय का नाश हो, ऐमी हिसा का पण्डित-पुरुष प्रयत्नपूर्वक त्याग करे । जो प्रमाद से दुमरे जीवों का नाश करता है, उसे ज्ञानी पुरुषों ने संसारवृक्ष को बीजभून हिंसा कहां है । जीव मरे या ना मरे तो मी प्रमाद करने वाले को अवश्य ही हिंसा लगती है । परन्तु प्रमाद से रहित व्यक्ति के निमित्त से यदि किसी जीव का प्राणनाश हो भी जाता है ; तो भी हिंसा नहीं लगती। प्रश्न होता है ---जीव (आत्मा) जब मवंथा नित्य है, अपरिणामी है, तो ऐसी दशा में जीव की हिंसा हो ही नहीं सकती, और सर्वथा क्षणिक (एकान्त अनिन्य) माने तो जीव के क्षणभर में नष्ट होने से उसकी भी हिमा कैसे लग सकती है ? क्योंकि उनके मत से वह जीव, जिसे मारने वाले ने मारा था, क्षण-विध्वंमी था ही, उस क्षण में वह ध्वस्त होता ही ; जिमका प्राणनाश किया है, वह तो अब रहा ही नहीं। इसलिये जीव नित्यानित्य और परिणामी मान कर काया या किसी भी प्राण के वियोग से पीड़ा होने के कारण पाप की कारणभूत हिंसा हो जाती है। कितनों का यह भी कहना है कि प्राणियों के घात करने वाले बाघ, सिंह, मर्प आदि जन्तुओं को तो देखते ही मार डालना चाहिए, क्योंकि ऐसे एक हिंसक जीव का घात कर देने से अनेक जीवों की रक्षा हो जायगी । यह कथन भी भ्रान्तिपूर्ण है। 'सभी जीव दूसरे का नाश करके जोते हैं ;' इस मत को माना जाय तो अपने जीने के लिए सभी दूसरों को मारने लगेंगे । जिसकी लाठी उसकी भैंस, वाली कहावत चरितार्थ हो जायगी। इसमें लाभ बहुत हो थोड़ा हो तो भी मूलधन का स्पष्टतः विनाश है । महिमा से होने वाला धर्म हिंसा से कैसे हो सकता है?
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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