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________________ १०० अर्थ दुर्गति में गिरते हुए जीवों को धारण-रक्षण करने के कारण ही उसे 'धर्म' कहते हैं। वह संयम आदि दश प्रकार का है, सर्वज्ञों द्वारा कथित है, और मोक्ष के लिए है। योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश व्याख्या नरकगति और तिर्यंचगति ये दोनों दुर्गति हैं । दुर्गति में गिरते हुए जीवों का धारण करके रखने वाला - अर्थात् दुर्गति से बचाने वाला धर्म कहलाता है । यही धर्मशब्द का (व्युत्पत्ति से ) अर्थ होता है, यही धर्म का लक्षण है । अथवा प्रकारान्तर से निरुक्तार्थं यह भी होता है कि जो सद्गतियों देवगति, मनुष्यगति या मोक्ष में जीवों को धारण स्थापित करे वह धर्म है: पूर्वाचार्यो ने भी कहा है - 'यह दुर्गति में गिरते हुए जीवों को धारण करता है और शुभ स्थान में स्थापित करता है, इसी कारण इसे धर्म कहा जाता है।' वह संयमादि दस प्रकार का धर्म सर्वज्ञकथित होने से मुक्ति के प्रयोजन को सिद्ध करता है । इस सम्बन्ध मे हम आगे बताएँगे। दूसरे देवों के असर्वज्ञ होने के कारण उनका कथन प्रमाणभूत नहीं माना जा सकता । यहाँ प्रतिपक्षी की यह शंका हो सकती है कि सर्वज्ञ के कहे हुए तो कोई वचन हैं ही नहीं; क्योंकि वेद तो नित्य अपौरुषेय (पुरुष-कर्तृत्व से रहित ) है, इसलिए उसके वचन तो किसी पुरुष के द्वारा कहे हुए हैं ही नहीं । अतः वेदवाक्य से ही तत्व का निर्णय कर लिया जायगा अथवा धर्म का स्वरूप जान लिया जायगा, फिर सर्वज्ञोक्त धर्म या तत्वनिर्णय की क्या जरूरत है ? कहा भी है- 'नोदना (वेद - प्रेरणा) से हर व्यक्ति भूत, भविष्य और वर्तमान, स्थूल और सूक्ष्म, दूर और निकट के पदार्थों को जान सकेगा; केवल इन्द्रियाँ तो कुछ भी नहीं जान सकतीं । वेद अपौरुपंय होने से उसकी प्रेरणा ( नोदना) में पुरुष -सम्बन्धी किसी भी दोष के प्रवेश की सम्भावना नहीं है । इसलिए वही प्रमाणभूत होना चाहिए । न्यायशास्त्र में भी कहा है - शब्द वक्ता के अधीन होता है ; वक्ता में दोष की सम्भावना है । जब गुणवान वक्ता में भी किसी समय निर्दोषता का अभाव हो सकता है, तब गुणों से रहित वक्ता के शब्द में दोषों के आने (संक्रमण) की सभावना तो अवश्यमेव है । अथवा किसी वचन में दोष है या नहीं, इस प्रकार की शंका पुरुष के वचनों में ही हो मकती है, जिसका वक्ता कोई पुरुष ही न हो, वहाँ वक्ता के अभाव में आश्रय के बिना दोष हो ही नहीं सकते । इसलिए अपौरुषेय वेद के वचनों में कर्तृत्व का अभाव होने किसी दोष के होने की कथमपि शंका नहीं हो सकती। उक्त शका का समाधान करते हुए कहते हैं-वचनम् सम्भवि भवेद् यदि । अपौरुषेयं न प्रमाणं भवेद् वाचां ह्याप्ताधीना प्रमाणता ॥१२॥ अर्थ पुरुष के बिना कोई भी वचन संभव नहीं होता, कदाचित् ऐसा वचन हो तो भी वह प्रमाणरूप नहीं है। यथार्थ वक्ता आप्तपुरुष के अधीन है । व्याख्या किसी पुरुष के द्वारा कहा हुआ वचन पौरुषेय वचन एवं करणों के आघातपूर्वक जो बोला जाय, वह वचन कहलाता यानी असम्भव माना जाता है । क्योंकि वचनों को प्रामाणिकता कहलाता है । कंठ, तालु आदि स्थानों । इसलिए जो भी वचन होगा वह
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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