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________________ सामान्य देव और देवाधिदेव में अन्तर ६७ बन्धन, शाप या प्रहाररूप निग्रह, एवं पापों की सजा माफ करना व वरदानादिरूप अनुग्रह इन दोनों में तत्पर रहना भी राग-द्वेष के कारण होता है। अगर परमदेव भी इस प्रकार के हों तो वे मुक्ति के कारणभूत नहीं हो सकते। वैसे तो संसार में भूत, प्रेत, पिशाच आदि क्रीड़ा करने वालों में भी देवत्व माना जाता है, उनके उस देवत्व को कोई रोक भी नहीं सकता । उन सामान्य देवों में मुक्ति के कारण का अभाव सूचित करते हैं - नांटचा : हाससंगीताद्य, पप्लवविसंस्थुलाः I लम्भयेयुः पदं शान्तं प्रपन्नान् प्राणिनः कथम् ? ॥७॥ अर्थ जो देव नाटक, अट्टहास, संगीत आदि राग ( मोह) - वर्द्धक कार्यों में अस्थिर चित्त वाले हैं, वे अपनी शरण में आए हुए जीवों को शान्तादरूप मुक्तिस्थान कैसे प्राप्त करायेंगे ? व्याख्या यहाँ सकल सांसारिक प्रपंचजाल से रहिन मुक्ति, केवलज्ञान आदि शब्दों से समझा जा सके, ऐसा शान्त मोक्षपद नाटक, अट्टहास, संगीत आदि सांसारिक उपाधि से डांवाडोल चित्तवृत्ति वाले देव अपने आश्रय में आए हुए भक्त वर्ग को केसे प्राप्त करा सकते हैं ? एरंड का पेड़ कल्पवृक्ष की समानता नहीं कर सकता। इसलिए राग, द्वेष और मोह के दोष से रहित एकमात्र वीतरागदेव ही मुक्ति को प्राप्त कराने वाले हो सकते हैं; दोपों से दूपित अन्य देव नहीं । इसके लिए यहाँ कई उपयोगी श्लोक ( श्लोकार्थ ) प्रस्तुत करते हैं 'गलत एवं अयोग्य प्रवृत्तियाँ करने वाले होने से सामान्य जन से निम्न भूमिका के रुद्र, विरंचि एवं माधव सर्वज्ञ या वीतराग कैसे हो सकते हैं ? स्त्री का सग काम का सूचक है, हथियार का ग्रहण द्वेष का द्योतक है । जपमाला अज्ञान का सूचक है और कमंडलु अशौच का द्योतक है। रुद्र के रुद्राणी, वृहस्पति के तारा, विरंचि के सावित्री, पुंडरीकाक्ष के पद्मालया, इन्द्र के शची सूर्य के रत्नादेवी, चन्द्र के दक्षपुत्री रोहिणी, अग्नि के स्वाहा, कामदेव के रति, यमदेव के धूमोर्णा नाम की स्त्री है। इस तरह देवों के साथ स्त्रियों का संग प्रगट है, और प्रत्येक के पास शस्त्र भी है, तथा प्रत्येक के पास मोह - विलास होने से उनके देवाधिदेवत्त्व में संदेह है ही । अतः निःसंदेह कहा जा सकता है कि देवाधिदेव पद का स्पर्श उन्होंने नहीं किया । अज्ञानतापूर्वक सारे संसार को शून्य बतलाने वाले सुगत में भी देवत्त्व घटित नहीं होता । शून्यत्त्व प्रमाण से सिद्ध होने के बाद शून्यवाद का कथन करना वृथा है और प्रमाण होने पर भी प्रमाण के बिना ( प्रमाण के भी शून्य हो जाने पर ) परपक्ष की भी शून्यसिद्धि नही हो सकती; तो फिर अपने पक्ष की सिद्धि किस तरह हो सकती है ? सुगत सर्वपदार्थों में क्षणिकत्व मानते हैं तो साधक का अपनी क्रिया के फल के साथ सम्बन्ध कैसे जुड़ सकता है ? क्षणिकवादियों का वध करने वाला भी फिर उस हिंसा का कारण कंसे होगा ? इसी प्रकार क्षणिकवादी की स्मृति भी उसे कैसे पहिचान पाएगी या कैसे व्यवहार कर सकेगी ? कृमियों आदि जीवों से भरा हुआ अपना शरीर व्याघ्र को सौंप देना ; यह भी देय-अदेय-विवेक से शून्य कैसी विचित्र सौगत-दया है ? अपने जन्म के समय ही माता के उदर को चीरने तथा मांस खाने के उपदेश १३
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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