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________________ चार अतिशयों से युक्त देवाधिदेव अहंन् की विशेषता वाला वह कैसे देवाधिदेवत्व को प्राप्त कर सकता है ? इसलिए अर्हन्तदेव के लिए रागादि से युक्त होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ___अरिहन्तदेव का तीसरा 'लोक्यपूजिनः' विशेषण उनके पूजातिशय को व्यक्त करता है। कुछ थोड़े-से ठगे गए भद्रवुद्धि जीवों के द्वारा की गई पूजा-भक्ति से ही किसी व्यक्ति में देवत्व नहीं माना जा सकता ; अपितु देवत्व का सही पता तो तब लगता है, जब चलितासन देव, असुर और विविध देशों की भाषा बोलने वाले बुद्धिशाली मनुष्य पारस्परिक जातिवर छोड़ कर मंत्रीभाव से अतिप्रोत हो जाते हैं, तिर्यचों में भी जिनके समवसरण में प्रवेश करने की होड़ लग जाती है तथा प्रभु की भक्ति करने, अंजलिपूजा, गुणस्तुति करने एव धर्मदेशनारूपी अमृत के आस्वादन करने की लोगों में होड़-सी लग जाती है। तियंचों और मनुष्यों से तो क्या, देवों से भी जब वे पुजते देखे जाते हैं। तभी उनके देवाधिदेवत्त्व के वास्तविक दर्शन होते हैं। _ 'यथास्थितार्थवादी' (जो पदार्थ जिम रूप मे है, उसका उसी रूप में यथार्थ कथन करने वाले) विशेषण से प्रभु का वचनातिशय परिलक्षित होता है । जिस पदार्थ का जो स्वरूप हो, उस सद्भूत पदार्थ का वैसे ही रूप में कथन करने वाला ही यथास्थितार्थवादी कहा जा सकता है । जैसा कि पारागस्तुति में कहा गया है -- आपकी हम पक्षपातरहित परीक्षा करना चाहें तो भी हम प्रतीतिपूर्वक जानते है किरागी-द्वेषी देवकी और आप वीतरागदेव की ; दोनों की तुलना हम नहीं कर सकते ; क्योकि आपका यथावस्थित अर्थकथनरूप गुण दूसरे देवों की योग्यता पर स्वतः प्रतिबन्ध लगाने वाला निर्बन्धरस मान। जाता है । सुरेन्द्र जैसों द्वारा नमन को आपकी ओर से दूसरों की अवगणना समझी जाय या आपका दूसरा के समान माना जाय । वस्तुतः आपके इस यथास्थित-वस्तुकथनरूप गुण से अन्य लोग भी आपकी अवगणना कैसे कर सकते हैं ? देवाधिदेव अहंन्-'दिवु क्रीड़ा विजीगीषु " ...' धातु से देव-शब्द बना है। जिसकी शब्दशास्त्र के अनुसार व्युत्पत्ति होती है-"दिव्यते इति देव:'-अर्थात् जिसकी पूजा या स्तुति होती है, वह देव है । ऐसे देव पूर्वोक्त सामर्थ्य एवं लक्षण वाले परमेश्वर, देवाधिदेव अहंन ही हो सकते हैं ; दूसरे नहीं। __ अब इस प्रकार के चार अतिशय वाले देवों की उपासना-सेवा-भक्ति करना, उनके शासन (धर्मसंघ) का स्वीकार करना, उनको सामने रख कर ध्यान-धारणा करना, उनकी शरण स्वीकार करना आदि बातों के लिए साग्रह अनुरोध कर रहे हैं -- ध्यातव्योऽयमुपास्योऽयमयं शरणमिष्यताम् । अस्यैव प्रतिपत्तव्यं शासनं, चेतनाऽस्ति चेत् ॥५॥ अर्थ अगर आप में सद्-असद का विचार करने की चेतना-बुद्धि है; तो ऐसे देव का ध्यान करना, उपासना करना, शरण में जाना और इनके हो शासन (धर्मसंघ) का स्वीकार करना चाहिए। व्याख्या इस प्रकार के अतिशय वाले देवाधिदेव का राजा श्रेणिक के समान पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्य और रूपातीत रूप में ध्यान करना चाहिए । श्रेणिक राजा श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के वर्ण, प्रमाण, संस्थान, संहनन, चौतीस अतिशय वाले योग गुण आदि गुणों के माध्यम से उनका ध्यान करता था ;
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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