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________________ रक्तपात के द्वारा कलंकित हुआ। अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद विश्व के दर्शनों में अद्वितीय हैं। . . . . 'स्याद्वाद सहिष्णुता और क्षमा का प्रतीक है, कारण वह यह मानता है कि दूसरे व्यक्ति को भी कुछ कहना है। · · · 'सम्यग्दर्शन और स्याद्वाद के सिद्धान्त औद्योगिक पद्धति द्वारा प्रस्तुत की गई जटिल समस्याओं को सुलझाने में अत्यधिक कार्यकारी होंगे।-जैन शासन, पृ.२४-२५ संस्कृत के उद्भट विद्वान् ग. गंगानाथजी मा ने लिखा है 'जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त का खण्डन पढ़ा है तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है जिसे वेदान्त के आचार्य ने नहीं समझा । और जो कुछ अब तक जैनधर्म को जान सका हूँ उससे मेरा दृढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्म को उसके मूल ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैनधर्म का विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती।' श्री प्रो. आनन्द शंकर बाबू भाई ध्रुव लिखते हैं "महावीर के सिद्धान्त में बताये गये स्याद्वाद को कितने ही लोग संशयबाद कहते हैं, इसे मैं नहीं मानना । म्याद्वाद संशयवाद नहीं है, किन्तु वह एक दृष्टि-बिन्दु हमको उपलब्ध कग देता है। विश्व का किस रीति से अवलोकन करना चाहिए यह हमें सिखाता है । यह निश्चय है कि विविध दृष्टि-बिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये बिना कोई भी वस्तु सम्पूर्ण स्वरूप में आ नहीं सकती। स्यावाद (जैनधर्म) पर आक्षेप करना यह अनुचित है।" वर्णी अभिनन्दन अन्य में पं. बलदेव उपाध्याय ने लिखा है___ "उपनिषदों में किमी एक ही मत के प्रतिपादन की बात (एकान्त) ऐतिहासिक दृष्टि से नितान्त हेय है, उनकी समता तो उस ज्ञान के मानसरोवर (अनेकान्त) से है जहाँ से भिन्न-भिन्न धार्मिक तथा दार्शनिक धाराएं निकलकर इस भारत-भूमि को आप्यायित करती आयी हैं। इस धारा (स्याद्वाद) को अग्रसर करने में ही जैन धर्म का महत्व है। इस धर्म का आचरण सदा प्रत्येक जीव का कर्तव्य है । वर्धमान तीर्थकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है।" अनंतशयनम् अय्यंगार, (अध्य लोकसभा भू.पू.) लिखते हैं "भारत के महान संतों, जैसे जैनधर्म के तीर्थंकर ऋषभदेव व भगवान् महावीर के उपदेशों को हमें पढ़ना चाहिए। आज उन्हें अपने जीवन में उतारने का सबसे ठीक समय आ पहुंचा है; क्योंकि जैनधर्म का तत्वज्ञान अनेकान्त (सापेक्ष्य पद्धति) पर आधारित है, और जैनधर्म का आचार अहिंसा पर
SR No.010812
Book TitleTirthankar Varddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1973
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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