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________________ (६) वस्तु अवक्तव्य (युगपद् कहने की अपेक्षा) होते हुए भी अन्य दृष्टिकोण से नहीं रूप (स्यात् नास्ति-अवक्तव्य) है; जैसे-राम दशरथ तथा जनक की युगपद् अपेक्षा पुत्र नहीं हैं, (स्यात् नास्ति अवक्तव्य)। (७) परस्पर विरोधी (है और नहीं रूप) दृष्टिकोणों से युगपद् (एक साथ एक ही शब्द द्वारा) अवक्तव्य (न कह सकने योग्य) होते हुए भी वस्तु क्रमश: उन परस्पर-विरोधी दृष्टिकोणों से है, नहीं (अस्ति नास्ति अवक्तव्य) रूप होती है; जैसे-राम राजा दशरथ तथा राजा जनक की अपेक्षा युगपद् रूप से कुछ भी नहीं कहे जा सकते (अवक्तव्य है) किन्तु युगपद् अपेक्षया अवक्तव्य होकर भी क्रमशः राम राजा दशरथ के पुत्र हैं, राजा जनक के पुत्र नहीं हैं। इस प्रकार सप्तभंगी प्रत्येक पदार्थ के विषय में लागू होती है। सप्तभङ्गी के लागू होने के विषय में मूल वात यह है कि प्रत्येक पदार्थ में अनुयोगी (अस्तित्व-रूप) और प्रतियोगी (अभावरूप-नास्तित्व रूप) धर्म पाये जाते हैं तथा अनुयोगी-प्रतियोगी धर्मों को युगपद् (एक साथ) किसी भी शब्द द्वारा न कह सकने योग्य रूप अवक्तव्य धर्म भी प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान है। अनुयोगी, प्रतियोगी और अवक्तव्य इन तीनों धर्मों के एक संयोगी (अकेले-अकेले) तीन भंग होते हैं तथा तीनों का मिलकर त्रि-मंयोगी भंग एक होता है। इस तरह सव मिलाकर सात भंग हो जाते है। ___ आचार्य कहते हैं-'अक्षरेण मिमते सप्त वाणीः'-सप्तविध वाक् अक्षरों द्वारा व्यक्त है । यहाँ प्रथमा, द्वितीयादि सप्त विभक्तियाँ ही ज्ञातव्य नहीं है, अपितु वाक् को सप्तभंगिमाएँ भी व्याख्यात हुई है। 'सप्त व्याहृति' वाणी को सप्तविध-संख्यान ही होना चाहिये। नहीं तो कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादन, सम्बन्ध, अधिकरण आदि कारक कैसे सिद्ध कर सकोगे; इसलिए सप्त-विध भंग ही शब्दशास्त्र से एवं वाणी से कथन करना सम्भव है । संगीत के स्वर और रवि, सोम, मंगल आदि भी तो सात हैं, सात संख्या महत्त्वपूर्ण है।
SR No.010812
Book TitleTirthankar Varddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1973
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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