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________________ वरण और अन्तराय चार घातिया कर्मों का क्षय अन्तर्मुहूर्त में करके सर्वज्ञ वीतराग या अर्हन्त जीवन्मक्त परमात्मापद प्राप्त किया। अतः वे पूर्ण शुद्ध एवं त्रिकाल ज्ञाता त्रिलोकज्ञ बन गये । यह शुभ काल वैशाख शुक्ला दशमी के अपराह्न (तीसरे पहर का प्रारम्भ) का समय था। तीर्थंकर महावीर ने अपने पूर्व तीसरे भव में जिसके लिए तपस्या की थी और इस भव में जिस कार्य के लिए राजसुख एवं घर-परिवार का परित्याग किया था वह उत्तम कार्य सम्पन्न हो गया। यह जहाँ तीर्थकर महावीर का परम सौभाग्य था, वहीं समस्त जगत् का. विशेष करके भारत का भी महान् मौभाग्य था कि एक सत्य-ज्ञाता. सत्पथ प्रदर्शक एवं अनुपम प्रभावशाली वक्ता उसको प्राप्त हुआ। तीर्थकर महावीर 'तीर्थकर प्रकृति' के उदय का भी सुवर्ण अवसर आ गया। समवशरण इस विश्व-हितकारिणी घटना की शभ सूचना कुछ विशेष चिन्हों द्वारा सौधर्म इन्द्र को प्राप्त हुई। तीर्थंकर महावीर के सर्वज्ञाता-दष्टा अर्हन्त वन जाने की वार्ता जानकर इन्द्र को वहुत हर्ष हुआ। उसने तीर्थंकर महावीर का विश्वकल्याणकारी उपदेश सर्व-साधारण जनता तक पहुंचाने के लिए अपने कोषाध्यक्ष (खजांची) कुबेर को एक सुन्दर विशाल व्याख्यान-सभा-मण्डप (समवशरण) बनाने का आदेश दिया। कुबेर ने इन्द्र की आज्ञानुसार अपने दिव्य साधनों से अतिशीघ्र एक बहुत सुन्दर दर्शनीय विशाल सभा-मण्डप बनाया। जिसके तीन कोट और चार द्वार थे। द्वारों पर मून्दर मानस्तम्भ थे। बीच में * 'वैशाखमितदशम्यां हस्तोतर मध्यमाश्रिने चं। क्षपक श्रेण्यारूद स्योत्पन्नं केवलज्ञानम् ॥'--. --निर्वाण भक्ति : १२ शीलैण्यं सम्प्राप्तो निरुवनिःणेपानवा जीवः । कर्मग्जो विप्रमुक्ती गतयोगः केवली भवति ।। --गोम्मटमार, जीव काण्ड ६५.
SR No.010812
Book TitleTirthankar Varddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1973
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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