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________________ कालीन कर्म के मैल में छिपा हुआ है । उस गहन कर्म - मल में छिपे हुए वैभव को पूर्ण शुद्ध प्रकट करने के लिए महान् परिश्रम करना पड़ता है, और महान् कष्ट सहन करना पड़ता है, तव यह आत्मा परम शुद्ध विश्ववन्द्या परमात्मा वना करता है । तीर्थंकर महावीर को भी आत्मशुद्धि के लिए कठोर तपस्या करनी पड़ी । तपश्चरण करते हुए उनकी पूर्व संचित कर्मराशि निर्मार्ण (निर्जरा) हो रही थी, कर्म - आगमन ( आस्रव) तथा वन्ध कम होता जा रहा था अर्थात् आत्मा का कर्म-मल कटता जा रहा था या घटता जा रहा था । अतः आत्मा का प्रच्छन्न तंज क्रमशः उदीयमान हो रहा था, आत्मा कर्म - भार से हल्का हो रहा था, मक्ति निकट आनी जा रही थी । विहार करते-करते तपस्वी योगी, तोर्थंकर महावीर विहार ( मगध ) प्रान्तीय जृम्भिका गाँव के निकट बहने वाली 'ऋजकला' नदी के तट पर आये । वहां आकर उन्होंने साल वृक्ष के नीचे प्रतिमायोग धारण किया ।' स्वात्म चिन्तन में निमग्न हो जाने पर उन्हें सातिशय अप्रमत्तगुण स्थान प्राप्त हुआ । तदनन्तर चारित्र माहनीय कर्म की शेष २१ प्रकृतियों का क्षय करने के लिए क्षपक श्रेणी का आद्यस्थान आठवाँ गुण स्थान हुआ। तदर्थ प्रथम शुक्ल व्यान ( पथकत्व वितर्क विचार) हुआ । जैसे ऊंचे भवन पर शीघ्र चढ़ने के लिए सीढ़ी (निर्मनी) उपयोगी होती है, उसी प्रकार संसार - भ्रमण एवं कर्म-वन्धन के मल कारण दुर्द्धर्ष मोहनीय कर्म का शीघ्र क्षय करने के लिए क्षपक श्रेणी उपयोगी होती है । कर्म-क्षय के योग्य आत्म परिणामों का प्रतिक्षण असंख्यातगुणा उन्नत होना हो क्षपक श्रेणी है । क्षपक श्रेणी आठवें, नौवें, इसवें और वारहवें गुण स्थान में होती है । इन गुण-स्थानों में चारित्र्य १. २. 'ऋजुकुलायास्तीरे शाल द्रुमसंश्रिते शिलापट्टे । अपराह्न ने पष्ठनास्थि नम्य खलु नृभिकाग्राम' ।।' 'मालश्चने जिन्द्राणां दीक्षावृक्षाः प्रकीर्तिताः । एन एव बुधैर्ज्ञेयाः केवलोत्पत्तिशाखिनः ।' -- निर्वाण भक्तिः ११ -- प्रतिष्ठातिलक १० / ५.
SR No.010812
Book TitleTirthankar Varddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1973
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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