________________
प्राक्कथन
मुनि श्री विद्यानन्दजी द्वारा लिखित 'वीर-प्रभु' लघु पुस्तिका छह-सात संस्करणों में लगभग २० हजार संख्या में प्रकाशित होकर पाठकों के सम्मुख आ चुकी है। भगवान महावीर के पच्चीस सौवें परिनिर्वाण-महोत्सव की योजनाओं के अन्तर्गत तीर्थकर वर्द्धमान के जीवन और देशना को प्रस्तुत संस्करण के रूप में परिवर्तित और परिवर्धित कर विद्वान एवं तपस्वी लेखक ने उसे बहुमूल्य कृति बना देने का सराहनीय प्रयत्न किया है। श्री वीर निर्वाण ग्रंथ प्रकाशन-समिति द्वारा पं. पत्रचन्द्रजी शास्त्री की भगवान महावीर की एक अन्य जीवनी भी प्रकाशित हो रही है, उसमें मुनिश्री के अनेक सुझाव है, जिनका यत्र-तत्र साम्य दिखाई देता है।
इस रचना में मुनिश्री ने जीवन्त स्वामी प्रतिमा का, जो राजकुमार महावीर के मंसार त्यागने के एक वर्ष पूर्व का चित्रण है, चित्र तथा तीर्थकर वर्द्धमान की पंचकल्याणक तिथियों का वर्तमान ईस्वी सन्, तारीख तथा वारों में उल्लेख, जन्मस्थान, वैशाली की महिमा इत्यादि विशेषताओं का दिग्दर्शन करा कर इसका महत्व वढ़ा दिया है।
भगवान महावीर के लोक मंगलकारी मिद्धांतों में अहिंमा, अनेकांत, म्याद्वाद अपरिगृह, ममतावाद और कर्मवाद आदि हैं, जिनका मूर्तिमान स्वरूप स्वयं लेखक अपने अलौकिक तपःपूत जीवन में ग्रहण किये हुए है और वर्तमान विषमता के विषाक्त वातावरण में मंप्रदायातीत मर्वधर्म-ममभाव और ममन्वय की पुण्यपीयूषधाग़ को जन-जीवन में प्रवाहित कर श्रमण-संस्कृति की महत्ता और विश्वधर्म का प्रचार-प्रमार कर रहे हैं। मानव-जीवन में भौतिकता के माथ आध्यात्मिकता का समन्वय होना आवश्यक है। आध्यात्मिकता जीवन को बाहय रूपरेखा के निर्माण के साथ जीवन को पशु-स्तर से उठा कर मानवीय धरातल पर ले जाती है। भारतीय संस्कृति में भौतिकता के भीतर ही आध्यात्मिकता की स्थिति मानी गई है।
भारतीय संस्कृति का मूल सिद्धांत व्यापक सहिष्णुता है। दूसरों की जीवनसंबंधी समस्याओं मोर दृष्टिकोण के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने की उदारता से इस देश में वैदिक दौर थमण साथ-साथ रह रहे हैं। सार्वभौमिक दृष्टि-विन्दु की विशिष्टता से ही विचारधाराओं में विरोष की जगह मंश्लेषण को प्रोत्साहित करने का प्रयत्ल रहा है।