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________________ ३८ बुझाने के लिए अपना भंडार भी भर लेती है, जनता के आमोद-प्रमोद के लिये हरी घास की चादर भी विछा देती है, समस्त जगत् का सन्ताप दूर हो जाता है और सभी मनुष्य पशु-पक्षी आनन्द की ध्वनि करने लगते हैं । इसी तरह स्वार्थ की आड़ में जब दुराचार - अत्याचार संसार में फैल जाता है; दीन, हीन, निःशक्त प्राणी निर्दयता की चक्की में पिसने लगते हैं, रक्षक जन ही उनके भक्षक बन जाते हैं, स्वार्थी दयाहीन मानव धर्म की धारा अधर्म की ओर मोड़ देता है, दीन असहाय प्राणियों की करुण पुकार जब कोई नहीं सुनता तव प्रकृति का करुण स्रोत बहने लगता है । वह ऐसा पराक्रमी साहसी वीर ला खड़ा करती है, जो अत्याचारियों के अत्याचार को मिटा देता है* ; दीन-दुःखी प्राणियों का संकट दूर करता है और जनता को सत्पथ दिखाता है । आज ते २६०० वर्ष पहिले भारत की वसुन्धरा भी पाप भार से काँप उठी थी । जनता जिन लोगों को अपना धर्म गुरु पुरोहित मानती थी, धर्म का अवतार समझती थी, उन ही का मुख रक्तमाँस का लोलुप वन गया था, अतः वे अपनी लोलुपता शान्त करने के लिए स्वर्ग, राज्य पुत्र धन आदि का प्रलोभन देकर भोली - अबोध जनता से हवन कराते थे उनमें वकरी आदि अनक मुक, निरीह ओर निरपराध पशुओं, यहाँ तक कि कभी-कभी धर्म के नाम पर कुल्ल करके उनके माँस का हवन करते थे। ज्ञानहीन जनता उन स्वार्थी. मान हुए धर्म-गुरुओं के वचनों को परमात्मा की वाणी तमझकर दयाहीन पाप को धर्म समझ बैठी थी इस तरह दीन, निर्बल, असहाय पशुओं की करुणा-जनक आवाज सुनने वाला कोई न था । इस प्रकार माँस- लोलुप धर्मान्धों का स्वार्थ और जनता का अज्ञान उस पाप कृत्य का संचालन कर रहा था उस समय आवश्यकता थी 'प्राचाराणां विधानेन कुदृष्टीनां च सम्पदाम् । धर्मग्लानि परिप्राप्तमुच्छ्रयन्ते जिनोनमाः ।।' 'बिसय विरतो ममणां छहसवर कारणं भाऊण । तित्थयर नामकम्मं बंध प्रहरेण कालेण ।।' - पद्म पुराण ५/२०६ --भावपाहुड ७६.
SR No.010812
Book TitleTirthankar Varddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1973
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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