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________________ aj [ भावधर्म-प्रका पापके परिणाम तो जिज्ञासुको होते ही नहीं। बहुतसे लोगोंको तो लक्ष्मी कमानेकी धुनमें अच्छी तरह खानेका समय भी नहीं मिलता; देश छोड़कर अनार्यकी तरह परदेशमें जाता है, जहाँ भगवानके दर्शन भी न मिलें, सत्संग भी न मिले! अरे भाई! जिसके लिये तूने इतना किया उस लक्ष्मीका कुछ तो सदुपयोग कर। पचास-साठ वर्ष संसारकी मजदूरी कर-करके मरने बैठा हो, मरते-मरते अन्त घडीमें बच जाय और खटियामें से उठे तो भी और वही का वही पापकार्यमें संलग्न हो जाय, परन्तु ऐसा नहीं विचारता कि अरे, समस्त जिन्दगी धन कमानेमें गर्वा दी और मुफ्तमें पाप बांधा, फिर भी यह धन तो कोई साथ चलनेका नहीं, इसलिये अपने बाथले ही राग घटाकर इसका कोई सदुपयोग करूँ, और जीवनमें आत्माका कुछ हित हो ऐसा उद्यम कर। देव-गुरु-धर्मका उत्साह, सत्पात्रदान, तीर्थयात्रा आदिमें राग घटाकर और लक्ष्मीका उपयोग करेगा तो भी तुझे अन्तरंगमें ऐसा सन्तोष होगा कि मात्माके हितके लिये मैंने कुछ किया है। अन्यथा मात्र पापमें ही जीवन बिताया तो तेरी लक्ष्मी भी निष्फल जावेगी और मरण समय तू पछतावेगा कि अरे, जीवनमें मात्महितके लिये कुछ नहीं किया; और अशान्तरूपसे देह छोड़कर कौन जाने कहाँ जाकर पैदा होगा? इसलिये हे भाई! छठेसे सातवें गुणस्थानमें मूलते मुनिराजने करुणा करके तेरे हितके लिये इस श्रावकधर्मका उपदेश दिया है। तेरे पास चाहे जितने धनका समूह हो, परन्तु उसमें तेरा कितना? तू दानमें खर्च करे उतना तेरा। राग घटाकर दानादि सत्कार्यमें खर्च हो उतना ही धन सफल है। बारम्बार सत्पात्रदानके प्रसंगसे, मुनिवरों-धर्मात्माओं आदिके प्रति बहुमान, विनय, भक्तिसे तुझे धर्मके संस्कार बने रहेंगे, और ये संस्कार परभवमें भी साथ चलेंगे। लक्ष्मी को परभवमें साथ नहीं चलती। इसलिये कहते हैं कि संसारके कार्यो में (विवाह, भोगोपभोग माविमें) तू लोभ करता हो तो भले कर, परन्तु धर्मकार्यों में तू लोभ मत करना, यहाँ तो उत्साहपूर्वक धर्तन करना। जो अपनेको धर्मी भावक कहलवाता है परन्तु धर्म-प्रसंगमें उत्साह तो आता नहीं, धर्मके लिये धन भादिका लोभ भी घटा नहीं सकता, तो भाचार्यदेव कहते हैं कि यह वास्तवमें धर्मी नहीं परन्तु दंभी है, भर्मीपनेका वह सिर्फ दंभ करता है। धर्मका जिसे वास्तव में रंग लगा हो उसे तो धर्मप्रसंगमें उत्साह माये ही; और धर्मके निमित्तों में जितना धन खर्च हो उतना सफल १-ऐसा समझकर दान मादिमें वह उत्साहसे धर्तता है। -सप्रकार दानकी बात कही; यही बात अब विशेष प्रकारसे कहते है।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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