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________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश माकाशमें उड़े, वे स्फुल्लिंग ही ये सूर्य-चन्द्र रूपमें उड़ते दिखाई दे रहे हैं। और भ्यान-अग्निमें भस्म होकर उड़ते हुए कर्मके समूह इन बादलोंके रूपमें अभी भी जहां-तहाँ घूम रहे हैं। ऐसी उपमाओं द्वारा श्रावक भगवानके शुक्ल-ध्यानको याद करता है और स्वयं भी उसकी भावना भाता है। ध्यानकी अग्नि, और वैराग्यकी हवा उससे अग्नि प्रज्वलित होकर कर्म भस्म हो गये, उसमेंसे सूर्य-चन्द्र रूपी स्फुल्लिग उड़े । ध्यानस्थ भगवानके बाल हवामें फर फर उड़ते देखकर कहता है कि, ये बाल नहीं ये, तो भगवानके अन्तरमें ध्यान द्वारा जो कर्म जल रहे हैं उनका धुआं उड़ रहा है। इस प्रकार सर्वशदेवको पहचानकर उनकी भक्तिका रंग लगाया है। उसके साथ गुरुकी उपासना, शास्त्रका स्वाध्याय आदि भी होता है। शाल तो कहते हैं कि अरे, कान द्वारा जिसने वीतरागी सिद्धान्तका श्रवण नहीं किया और मनमें उसका चितवन नहीं किया, उसे कान और मन मिलना न मिलनेके बराबर ही है। आत्माकी जिज्ञासा नहीं करे तो कान और मन दोनों गुमाकर एकेन्द्रियमें चला जायगा । कानकी सफलता इसमें है कि धर्मका श्रवण करे, मनकी सफलता इसमें है कि आत्मिक गुणोंका चितवन करे, और धनकी सफलता इसमें है कि सत्पात्रके दानमें उसका उपयोग हो। भाई, अनेक प्रकारके पाप करके तूने धन इकट्ठा किया, तो अब परिणामोंको पलटकर उसका ऐसा उपयोग कर कि जिससे तेरे पाप धुलें और तुझे उत्तम पुण्य बन्धे ।-उसका उपयोग तो धर्मके पानानपूर्वक सत्पात्रदान करना यही है। लोगोंको जीवनसे और पुत्रसे भी यह धन प्यारा होता है। परन्तु धर्मी भावकको धनकी अपेक्षा धर्म प्यारा है। इसलिये धर्मके लिये धन खर्चनेमें इसे उल्लाल माता है। इसलिये थावकके घरमें अनेक प्रकारके दानके कार्य निरंतर चला करते हैं। धर्म और वानरहित घरको तो स्मशानतुल्य गिनकर कहते हैं कि ऐसे गृहवासको तो गहरे पानी में जाकर 'स्वा...हा' कर देना । जो एकमात्र पापबन्धका ही कारण हो ऐसे गृहवासको तू तिलांजलि देना, पानीमें डबो देना । अरे, वीतरागी सन्त इस दानका गुन्जार शब्द करते हैं .. उसे सुनकर किन भव्य जीवोंके लयकमल न खिल उठे ? किसे उत्साह नहीं आवे ? भ्रमरके गुन्जार शब्दसे और. चन्द्रमाके उदयसे कमलकी कली तो खिल उठतो है, पत्थर नहीं खिलता है; उसी प्रकार इस उपदेशरूपी गुंजार शब्दको सुनकर धर्मकी रुचिवाले जीवका हरय तो खिल उठता है...कि वाह ! देव-गुरु-धर्मकी सेवाका अवसर आया...मेरा धन्य भाग्य...कि मुझे देव-गुरु-का काम मिला । इस प्रकार उल्लसित होता है। शास्त्र में
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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