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________________ . [ श्रावकधर्म-प्रकाश किसी अन्य के लिये राग नहीं घटाना है। इसलिये धर्मी जीव चतुर्विध दान द्वारा अपने रागको घटाये ऐसा उपदेश है ॥ १२ ॥ अनेक प्रकारके आरम्भ और पापसे भरे हुए गृहस्थाश्रममें पापसे बचने के लिये दान मुख्य कार्य है; उसका उपदेश आगेकी छह गाथाओंमें करेंगे। ) -- यदितु सम्यनिछे ... MER सम्यक्त्वादि रत्नत्रयगुणके धारक ऐसे गुणीजनोंके प्रति धर्मीको प्रमोद आता है; उस रत्नत्रयको तथा उसके आराधक गुणीजनोंको देखकर उसके अन्तरमें प्रेम-हर्ष-उत्साह और बहुमान उत्पन्न होता है, उसे वात्सल्य उल्लसित होता है। गुणीजनोंके प्रति जिसे प्रमोद न आवे, तो समझो कि उस जीवको गुणोंकी महिमाकी खबर नहीं, उसे अन्तरमें गुण प्रगटे नहीं। अपनेमें जिसे गुण प्रगटे हों उसे वैसे गुण अन्यमें देखकर प्रमोद आये - बिना नहीं रहता। 8993989
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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