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________________ भावधर्म- काश | it उत्कृष्ट पुण्य बन्धता है कि इन्द्रपद, चक्रवर्ती पद आदि प्राप्त होता है; और उस पुण्यफलमें हेयबुद्धि है इसलिये वह रागको तोड़कर, वीतराग होकर मोक्ष प्राप्त करेगा । इस अपेक्षाले उपचार करके दानके फलसे आराधक जीवको मोक्षकी प्राप्ति कह दी । परन्तु जो जीव सम्यग्दर्शन प्रगट न करे और मात्र शुभरागसे ही मोक्ष होना मानकर उसमें रुक जाये, वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, उसे तो भावकपना भी सच्चा नहीं होता । दानके फलस्वरूप पुण्य से स्वर्गके सुख निरोग-रूपवान शरीर, चक्रवर्तीपदका वैभव आदि मिले उसमें शानीको कोई सुखबुद्धि नहीं, अन्तरके चैतन्यसुखको प्रतीति और अनुभवमें लिया है, इसके अतिरिक्त अन्य कहीं पर उसे सुख नहीं भासता । दानके फलमें किसीको ऐसी ऋद्धि प्रगट हो कि उसके शरीरके स्नानका पानी छींटते ही अन्यका रोग मिट जावे और मूर्छा दूर हो जाये । शास्त्रदानसे ज्ञानावरणका क्षयोपशम होता है और आश्चर्यकारी बुद्धि प्रगटती है । देखो ना, ग्वालेके भवमें शास्त्रदान देकर ज्ञानका बहुमान किया तो इस भवमें कुन्दकुन्दाचार्यदेवको कैसा श्रुतज्ञान प्रगटा ! और कैसी लब्धि प्राप्त हुई ! तो ज्ञानके अगाध सागर थे: तीर्थंकर भगवानकी साक्षात् दिव्यध्वनि इस पंचम कालमें उन्हें सुनने को मिली । मंगलाचरणके श्लोक में महावीर भगवान और गौतम गणधरके पीछे मंगलम् कुन्दकुन्दार्यो कहकर तीसरा उनका नाम लिया जाता है। देव-गुरु-शास्त्रके अनादरसे जीवको तीव्र पाप बँधता है, और देव-गुरु-शास्त्र के बहुमानसे जीवको ज्ञानादि प्रगट होते हैं। जिस प्रकार अनाजके साथ भूसा तो सहज ही पकता है, परन्तु चतुर किसान भूसेके लिये बोनी नहीं करता, उसकी दृष्टि तो अनाज पर है । उसी प्रकार धर्मात्माको शुद्धता के साथ रहनेवाले शुभसे ऊँचा पुण्य बन्धता है और चक्रवर्ती आदि ऊँची पदवी सहज ही मिलती है, परन्तु उसकी दृष्टि तो आत्माकी शुद्धता के साधन पर है, पुण्य अथवा उसके फलकी वाञ्छा उसे नहीं । जिले पुण्यके फलकी वाञ्छा है ऐसे मिथ्यादृष्टिको तो ऊँचा पुण्य नहीं बन्धताः चक्रवर्ती आदि ऊँची पदवीके योग्य पुण्य मिथ्यादर्शनकी भूमिकामें बन्धता नहीं । सम्यग्दर्शनरहित जीव मुनिराज आदि उत्तम पात्रको आहारदान दे अथवा अनुमोदन करे तो उसके फलमें वह भोगभूमिमें उत्पन्न होता है, वहाँ असंख्य वर्षकी आयु होती है और दस प्रकारके कल्पवृक्ष उसे पुण्यका फल देते हैं । ऋषभदेव भादि जीवोंने पूर्वमें मुनियोंको आहारदान दिया इससे भोगभूमिमें जन्मे थे, और वहाँ मुनिके उपदेशसे सम्यग्दर्शन प्राप्त किया था । श्रेयांसकुमारने ऋषभदेव भगवानको आहारदान दिया उसकी महिमा तो प्रसिद्ध है ।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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