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________________ धावकधर्म-प्रकाश । भगवानकी दिव्यध्वनि साक्षात् श्रवण की और उन्होंने इस भरतक्षेत्रमें भुतहालकी धारा बहाई । इन्हें आराधक भावका विशेष जोर और साथमें पुण्यका भी महान योग था । इन्होंने तो तीर्थकर जैसा काम किया है। __ आराधकका पुण्य लोकोत्तर होता है। तीर्थकरके जीवको गर्ममें मालेकी छह महीनेकी देर हो, अभी तो यह जीव (श्रेणिक आदि कोई ) नरक में हो गया स्वर्गमें हो; इधर तो इन्द्र-इन्द्राणी यहाँ आकर उनके माता-पिताका बहुमान करते हैं कि धन्य रत्नखधारिणी माता ! छह महीने पश्चात् आपकी फैखमें तीनलोकके नाम तीर्थकर आनेवाले हैं !-ऐसा बहुमान करते हैं; और जहाँ उनका जन्म होनेवाला हो वहाँ प्रतिदिन करोड़ों रत्नोंकी वृष्टि करते हैं । छह मास पूर्व नरकमें भी उस जीवको उपद्रव शांत होजाते हैं । तीर्थकर-प्रकृतिका उदय तो पीछे तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान होगा तब आवेगा, परन्तु उसके पहले उसके साथ ऐसा पुण्य होता है। (यहाँ उत्कृष्ट पुण्यकी बात है; सभी आगधक जीवोंको ऐसा पुण्य होता है-ऐसा नहीं, परन्तु तीर्थकर होनेवाले जीवको ही ऐसा पुण्य होता है ।) यह सब तो अविस्य बात है। आत्माका स्वभाव भी अचित्य, और उसका जो भाराधक हुमा उसका पुण्य भी अचिंत्य ! इसप्रकार आत्माके लक्ष्यसे भावक-धर्मात्मा शानदान करता है, उसमें उसे रागका निषेध है और शानका आदर है, इसलिये यह केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थकर होगा, तीनलोकके जीव उत्सव मनायेंगे और उसकी दिव्यध्वनिसे धर्मका निर्मल मार्ग चलेगा। इसप्रकार शानदानका वर्णन किया । "दुर्लम है संसारमें एक यथारय मान"
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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