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________________ प्रावकधर्म-प्रकाश ] आदि लक्ष्मीको करनेवाली, और लोकके समस्त पदार्थोंको हस्तरेखा समान देखनेवाली ऐसी केवलज्ञानज्योति प्राप्त करता है। अर्थात् तीर्थकर-पद सहित केवलज्ञानको प्राप्त करता है। शानकी आराधनाका जो भाव है उसके फलमें केवलज्ञान प्राप्त होता है और बीवमें शानके बहुमानका, धर्मीक बहुमानका जो शुभभाष है उससे तीर्थकर-पद आदि मिलता है। इसलिये अपने हितको चाहनेवाले भाषकको हमेशा ज्ञानदान करना चाहिये। देखो, इस शानदानकी महिमा ! सच्चे शाल कौन है उसकी जिसने पहचान की है और स्वयं सम्यग्ज्ञान प्रगट किया है उसे ऐसा भाष भाता है कि अहो, ऐसी जिनवाणीका जगत्में प्रचार हो, और जीव सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके अपना हित करें। ऐसी शान-प्रचारको भावनापूर्षक स्वयं शास्त्र लिखे, लिखावे, पदे, प्रसिद्ध करे, लोगोंको सरलतासे शास्त्र मिलें-ऐसा करे, ऐसे शानदानका भाव धर्मी जीयको भाता है, धर्म-जिज्ञासुको भी ऐसा भाव आता है। शानदानमें स्वयंके शानका बहुमान पुष्ट होता है। यहाँ किसी सम्यग्दृष्टि जीवको ऐसा ऊँचा पुण्य बँधता है कि वह तीर्थकर होता है, और समवशरणमें दिव्यध्वनि खिरती है, उस दिव्यध्वनिको झेलकर बहुतसे जीव धर्म प्राप्त करते हैं। " अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग" अर्थात् शानके तीव्र रससे बारम्बार उसमें उपयोग लगामा उसे भी तीर्थकर-प्रकृतिका कारण कहा है। परन्तु ऐसे भाव वास्तवमें किसे होते हैं? ज्ञानस्वरूप आत्माको जानकर जिसने सम्यग्दर्शन प्रगट किया हो अर्थात् स्वयं धर्म प्राप्त किया हो उसे ही शानदान या अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग यथार्थरूपसे होता है। सचा मार्ग जिसने जान लिया है ऐसे श्रावकके धर्मकी यह बात है। सम्यग्दर्शन बिना तो व्रत-दान आदि शुभ करते हुए भी वह अनादिसे संसारमें परिभ्रमण कर रहा है। यहाँ तो मेदज्ञान प्रगट कर जो मोक्षमार्गमें आरूढ़ है ऐसे जीवकी बात है। जिसने स्वयं ही शान नहीं पाया वह अन्यको शानदान क्या करेगा ? जानके निर्णय बिना शास्त्र आदिके बहुमानसे पुस्तक आदिका दान करे उसमें मोक्षमार्गरहित पुण्य बँधता है, परन्तु यहाँ श्रावक-धर्ममें तो मोक्षमार्ग सहित दानादिकी प्रधानता है; इसलिये सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति तो प्रथम करनी चाहिये, उसके बिना मोक्षमार्ग नहीं होता । शानदान-शास्त्रदान करनेवाले श्रावकको सत्शाल और कुशालके बीच विवेक है। सर्वज्ञकी वाणी झेलकर गणधरादि मन्तों द्वारा रचे हुए वीतरागी शास्त्रोंको पहचानकर उनका दान और प्रचार करे; परन्तु मिथ्याष्टियोंके रचे हुए, तत्त्वविरुद्ध, कुमार्गका पोषण करनेवाले ऐसे कुशालोंको वह नहीं
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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