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________________ श्रीधर्म-प्रकाश ] [ ६३ देखिये ! इसमें मात्र शुभरागकी बात नहीं, परन्तु सर्वज्ञकी भद्धा और सम्यग्दर्शन कैसे हो वह पहले बताया गया है, ऐसी श्रद्धापूर्वक भावकधर्मकी यह बात है । जहाँ श्रद्धा ही सच्ची नहीं और कुदेव, कुगुरुका सेवन होता है वहाँ तो श्रावकधर्म नहीं होता । श्रावकको मुनि आदि धर्मात्माके प्रति कैसा प्रेम होता है वह यहाँ बताना है । जिस प्रकार अपने शरीरमें रोगादि होने पर दक्षा करवानेका राग होता है, तो मुनि इत्यादि धर्मात्माके प्रति भी धर्मीको वात्सल्यभावसे औषधिदानका भाव आता है। गृहस्थ प्यारे पुत्रको रोगादि होने पर उसका कैसे ध्यान रखता है ! तो धर्मको तो सबसे प्रिय मुनि आदि धर्मात्मा हैं, उनके प्रति उसे आहारदान - औषधिदान शास्त्रदान इत्यादिका भाव आये बिना रहता नहीं । यहाँ कोई दवासे शरीर अच्छा रहता है अथवा शरीरसे धर्म टिकता है-ऐसा सिद्धान्त नहीं स्थापना है, परन्तु धर्मीको राग किस प्रकारका होता है वह बताना है। जिसे धर्मकी अपेक्षा संसारकी तरफका प्रेम अधिक रहे वह धर्मी कैसा ? संसारमें जीव स्त्री-पुत्र आदिकी वर्षगांठ लग्न-प्रसंग आदिके बहाने रागकी पुष्टि करता है, वहाँ तो अशुभभाव है तो भी पुष्टि करता है, तो धर्मका जिसे रंग है वह धर्मी जीव भगवानके जन्मकल्याणक, मोक्षकल्याणक, कोई यात्रा - प्रसंग, भक्तिप्रसंग, ज्ञान-प्रसंग - मादिके बहाने धर्मका उत्साह व्यक्त करता है। शुभके अनेक प्रकारोंमें औषधिदानका भी प्रकार श्रावकको होता है, उसकी बात की । अब तीसरा ज्ञानदान है उसका वर्णन करते हैं। GEEEEEEEE हे भावक ! हो और स्वभावसुखका यह भवदुःख तुझे प्रिय न लगता अनुभव तू चाहता हो, तो तेरे प्रगट ध्येयको दिशा पलट दे; जगत् से उदास होकर अन्तरमें चैतन्यको ध्यानेसे तुझे परम आनन्द होगा और भवकी लता क्षणमें टूट जावेगी । आनन्दकारी परमभाराभ्य चैतन्यदेव तेरेमें ही विराज रहा है । BEREFBAGE
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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