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________________ [६१ पाप-प्रकाश ne.................[ ९ ]..................... औषधिदानका वर्णन .. ... .. ... .. . .. . . . देखिये, यहाँ दानमें सामने सत्पात्ररूप मुख्यतः मुनिको लिया 8 है, अर्थात् धर्मके लक्ष्यपूर्वक दानकी इसमें मुख्यता है। दान करने वालेकी दृष्टि मोक्षमार्ग पर लगी है। शुद्धोपयोग द्वारा केवलज्ञानके कपाट खोल रहे मुनिवर देहके प्रति निर्मम होते हैं। परन्तु भावक भक्तिपूर्वक ध्यान रखकर निर्दोष आहारके साथ निर्दोप औषधि भी देता है। मुनिको तो चैतन्यके अन्दर अमृतसागरमेंसे आनन्दकी लहरें उछली हैं, इन्हें ठंडी-गर्मीका अथवा देहको रक्षाका लक्ष्य Sssssssssssss श्रावक मुनि आदिको औषधदान देवे-यह कहते हैं स्वेच्छाहारविहार जल्पनतया नीवपुर्जायते साधूनां तु न सा ततस्तदपटु प्रायेण संभाव्यते । कुर्यादौपधपथ्यवारिभिरिदं चारित्र भारक्षमं यत्तस्मादिह वर्तते प्रशमिनां धर्मो गृहस्थोत्तमात् ।। ९ ॥ इच्छानुसार आहार-विहार और सम्माषण द्वारा शरीर निरोग रहता है, परन्तु मुनियोंको तो इच्छानुसार भोजनादि नहीं होता इसलिये उनका शरीर प्रायः मशक ही रहता है । परन्तु उत्तम गृहस्थ योग्य औषधि तथा पथ्य भोजन-पानी द्वारा मुनियों के शरीरको चारित्रपालन हेतु समर्थ बनाता है । इस प्रकार मुनिधर्मकी प्रवृत्ति उत्तम प्रावक द्वारा होती हैं । अतः धर्मी गृहस्थोंको ऐसे दानधर्मका' पालन करना चाहिये।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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