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________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश ___ व्यवहारका कथन है इसलिये प्रायः शब्द रखा है; निश्चयसे तो आत्माके शुद्ध भावके आश्रयसे ही मोक्षमार्ग टिका हुआ है, और उस भूमिकामें यथाजात. रूपधर निर्ग्रन्थ शरीर, आहार आदि बाह्य निमित्त होते हैं अर्थात् दानके उपदेशमें प्रायः इसके द्वारा ही मोक्षमार्ग प्रवर्तता है-ऐसा निमित्तसे कहा जाता है । वास्तवमें कोई आहारसे या शरीरसे मोक्षमार्ग टिकता है-ऐसा नहीं बताना है। अरे, मोक्षमार्गके टिकनेमें जहाँ महावत आदिके शुभरागका सहारा नहीं वहाँ शरीरकी और आहारकी क्या बात? इसके आधारसे मोक्षमार्ग कहना यह तो सब निमित्तका कथन है। यहाँ तो आहारदान देने में धर्मी जीव-श्रावकका ध्येय कहाँ है? वह बताना है। दान आदिके शुभभावके समय ही धर्मी गृहस्थको अन्तरमें मोक्षमार्गका यहुमान है; पुण्यका बहुमान नहीं, बाह्यक्रियाका कर्तव्य नहीं, परन्तु मोक्षमार्गका ही बहुमान है कि अहो, धन्य ये सन्त ! धन्य आजका दिन कि मेरे आँगनमें मोक्षमार्गी मुनिराजके चरण पड़े ! आज तो जीना-जागता मोक्षमार्ग मेरे माँगनमें आया ! अहो, धन्य यह मोक्षमार्ग ! ऐसे मोक्षमार्गी मुनिको देखते ही श्रावकका हृदय बहुमानसे उछल उठता है, मुनिके प्रति उसे अत्यन्त भक्ति और प्रमोद उत्पन्न होता है । "साचुं रे सगपण साधर्मीतj"-अन्य लौकिक सम्बन्ध अपेक्षा इसे धर्मात्माके प्रति विशेष उल्लास आता है। मोही जीवको स्त्री-पुत्र-भाई बहन आदिके प्रति प्रेमरूप भक्ति आती है वह तो पापभक्ति है; धर्मी जीवको देव-गुरु-धर्मात्माके प्रति परम प्रीतिरूप भक्ति उछल उठती है वह पुण्यका कारण है, और उसमें वीतरागविज्ञानमय धर्मके प्रेमका पोषण होता है। जिसे धर्मीके प्रति भक्ति नहीं होती उसे धर्मके प्रति भी भक्ति नहीं, क्योंकि धकि बिना धर्म नहीं होता । जिसे धर्मका प्रेम हो उसे धर्मात्माके प्रति उल्लास आये बिना नहीं रहता। सीताजीके बिरहमें रामचन्द्रजीकी चेष्टा साधारण लोगोंको तो पागल जैसी लगे, परन्तु उनका अन्तरंग कुछ जुदा ही था । अहो, सीता मेरी सहधर्मिणी ! उसके हदयमें धर्मका वास है, उसे आत्मज्ञान वर्त रहा है। वह कहाँ होगी ? उस जंगलमें उसका क्या हुआ होगा? इसप्रकार साधर्मीपनेके कारण रामचन्द्रजीको सीताके हरणसे विशेष दुःख आया था। अरे, वह धर्मात्मा देव-गुरुकी परम भक्त, उसे मेरा वियोग हुआ, मुझे ऐसी धर्मात्मा-साधर्मीका विछोह हुआ,-ऐसे धर्मकी प्रधानताका विरह है। परन्तु बानीके हृदयको संयोगकी ओरसे देखने वाले मूढ़ जीव परख नहीं सकते । . . धर्मी-श्रावक अन्य धर्मात्माको देखकर आनन्दित होता है और बहुमानसे आहारदान आदिका भाव आता है, उसका यह वर्णन चल रहा है । मुनिको तो
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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